________________
मार्गदर्शक :- आचार्य द्वितीय अध्यायात
सप्त तत्त्वोंमें से जीवके स्वतत्त्वको बतलाते हैंऔपशामिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपरिणामिकौ च ।। १ ।।
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायक और पारिणामिक जीवके ये पांच असाधारण भाब है।
कर्मके अनुदय को उपशम कहते हैं । कर्मो के उपशमसे होनेवाले भावोंको औपशमिक भाव कहते हैं। कर्मों के क्षयसे होने वाले भाव क्षायिक भाव कहलाते हैं। सर्वघाति सद्भुकों का उदयाभाविक्षय, आगामी कालमें उदय आनेवाले सर्वघाति स्पर्द्धकोंका सवस्थारूप उपशम और देशथाति स्पर्द्धकों के उदयको क्षयोपशम कहते हैं और क्षयोपशम जन्य भावोंको शायोपशमिक भाव कहते हैं। काँके उदयसे होनेवाले भावोंको औदायिकभाव कहते हैं। कांके उदय, उपशम, भय और क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखनेवाले भावों का पारिणामिकमाय कहते हैं।
भव्यजीवके पाँचों ही भाव होते हैं। अभव्यक औपशमिक और क्षायिक भावोंको छोड़कर अन्य तीन भाव होते हैं।
उक्त भावोंके भेदोंको बतलाते हैंद्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥ २ ॥ उक्त भावोंके क्रमसे दो, नत्र, अठारह, इक्कीस और तोन भेद होते हैं।
औपशामक भावके भेद
सम्यक्त्व चारित्रे ॥३॥ औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो ऑपशमिक भाव हैं । अनन्तानुपन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्य, सम्यग मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतियों के उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है।
श्रमादि मिध्यादृष्टि जीवके काललब्धि आदि कारणों के मिलने पर उपशम होता है।
कर्मयुक्त भव्य जीव संसारके काल मेंसे अद्धपुद्गल परिवर्तन काल शेष रहनेपर औपशमिक सम्यक्त्वके योग्य होता है यह एक काललब्धि है। आत्मामें कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति अथवा जघन्य स्थिति होने पर औपशमिक सम्यक्त्व नहीं हो सकता किन्तु अन्तः कोटाकोटिसागर प्रमाण कोंकी स्थिति होनेपर और निर्मल परिणामोंसे उस स्थिति में से संख्यात हजार सागर स्थिति कम होजाने पर औपशमिक सम्यकत्वके योग्य आत्मा होता है । यह दूसरी काललब्धि है।
___ भव्य, पञ्चेन्द्रिय, समनस्क, पर्यातक और सर्वविशुद्ध जीव औपशमिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है । यह तीसरी काल लब्धि है।
आदि शब्दसे जातिस्मरण, जिनमहिमादर्शनादि कारणों से भी सम्यक्त्व होता है। सोलह कषाय ओर नव नो कषायोंके उपशमसे औपशमिक चारित्र होता है।