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________________ ३६२ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [१३१ केवल सत्ता (भाय ) को ही विषय करता है। इसी प्रकार आगे समझ लेना चाहिये । पहिले पहिले के नय आगे आगे के नयोंके हेतु होते हैं। जैसे नेगमनय संग्रहनयका हेतु है, संग्रहनय व्यवहार नयका हेतु है इत्यादि । __ उक्तनय परस्पर सापेक्ष होकर ही सम्यग्दर्शनके कारण होते हैं जैसे तन्तु परस्पर सापेक्ष होकर ( वस्त्ररूपसे परिणत होकर ) ही शीतनिवारण आदि अपने कार्यको करते हैं । जिस प्रकार तन्तु पृथक पृथक् रहकर अपना शीतनिवारण कार्य नहीं कर सकते, उसी प्रकार परस्पर निरपेक्ष नयभी अर्थकिया नहीं कर सकते हैं। प्रश्न-तन्तुका दृष्टान्त ठीक नहीं है, क्योंकि पृथक र तन्तुभी अपनी शक्तिके अनुसार अपना कार्य करते ही हैं लेकिन निरपेक्ष नय तो कुछ भी अर्थकिया नहीं कर सकते । उत्तर-आपने हमारे अभिप्रायको नहीं समझा। हमने कहा था कि निरपेक्ष तन्तु बरूस्का काम नहीं कर सकते । आपने जो प्रथक् २ तन्तुओंके द्वारा कार्य बतलाया वह तन्तुओंका ही कार्य है वखका नहीं । तन्तुभी अपना कार्य तभी करता है जब उसके अवयव परस्परसापेक्ष होते हैं। अतः तन्तुका दृष्टान्त बिलकुल ठीक है। इसलिये परस्पर सापेक्ष नयोंके द्वारा ही अक्रिया हो सकती है। जिस प्रकार तन्तुओंमें शक्तिकी अपेक्षासे घस्तुको अर्थक्रियाका सद्भाव माना जाता है उसी तरह निरपेक्ष नयोमें भी सम्यग्दर्शन की अगता शक्तिरूपमें है ही पर अभिव्यक्ति सापेक्ष दशामें ही होगी। मार्गदर्शक :-प्रधानाध्यीयसभनागर जी महाराज
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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