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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ११३१ प्रथम अध्याय ३६१ उत्तर-यहाँ केवल ऋजुसूत्रनय का विषय दिखलाया गया है। लोक व्यवहार के लिये तो अन्य नय हैं ही। जेसे मत व्यक्तिको देखकर कोई कहता है कि 'संसार अनित्य है। लेकिन सारा संसार तो अनित्य नहीं है। उसी प्रकार ऋजुसूत्रनय अपने विषयको जानता है लेकिन इससे लोकव्यवहारकी निवृत्ति नहीं हो सकती। उक्त चार नय अर्थनय और आगेके तीन नय शब्दनय कहलाते हैं। जो लिङ्ग, संख्या, कारक आदिके व्यभिचार का निषेध करता है वह शब्दमय है। लिङ्गव्यभिचार-पुष्य नक्षत्रं, पुष्यः तारका-पुष्य नक्षत्र, पुष्य तारा । यहाँ पुल्लिा पुष्य शब्द के साथ नपुंसकलि ननन और स्त्रीलिंग तास शब्दका प्रयोग करना लिङ्गव्यभिचार है. संख्याव्यभिचार-आपः तोयम् . वीः ऋतुः यहाँ बहुचनान्त आपः शब्द के साथ तोयम् एकवचनान्त शब्दका और बहुवचनान्त वर्षाः शब्द के साथ एकवचनान्त ऋतु शब्दका प्रयोग करना संस्याव्यभिचार है। कारकव्यभिचार-सेना पर्वतमधिवसति-पर्वतमें सेना रहनी है। यहाँ पर्वते इस प्रकार अधिकरण ( सप्तमी) कारक होना चाहिये था लेकिन है कम (द्वितीया ) कारक | यह कारकव्यभिचार है। पुरुषभिचार-पाह मन्ये रथेन यास्यसि ? न यास्यसि, यातस्ते पिता । अाश्रो, तुम एसा मानते हो कि 'मैं रथसे जाऊँगा', लेकिन तुम रथसे नहीं जा सकते हो. तुम्हारे बाप रथसे चले गये हैं। यहाँ 'मन्ये उत्तम पुरुषके स्थान में मन्यसे' मध्यम पुरुष और 'यास्यसि' मध्यम पुरुषके स्थानमें 'यास्यामि' उत्तम पुरुष होना चाहिये था। यह पुरुप व्यभिचार है। कालव्यभिचार-विश्:श्वा अस्य पुत्रो जनिता-इसके ऐसा पुत्र होगा जिसने विश्वको देख लिया है । यही भविष्यत् कालके कार्यक्रो अतीतकालमें बतलाया गया है। यह कालयभिचार है। उपग्रहव्यभिचार-स्था धातु परस्मैपदी है । लेकिन सम आदि कुछ उपसर्गो के संयोगसे स्था धातुको यात्मनेपदी बना देना जैसे संतिष्ठते, प्रतिष्ठते । इसीप्रकार अन्य परस्मैपदी धातुओंको आत्मनेपदी और आत्मनेपदी धातुओंको परस्मैपदी बना देना उपग्रह व्यभिचार है। उक प्रकारके सभी व्यभिचार शब्दनयकी रष्टिसे ठीक नहीं है। इसकी दृष्टिसे उचित लि., संख्या आदिका ही प्रयोग होना चाहिये। प्रश्न-सा हानेसे लोकव्यवहार में जो उक्त प्रकारके प्रयोग देखे जाते हैं वह नहीं होंगे। उत्तर-यहाँ केवल तत्त्वको परीक्षाकी गई है। विरोध हानेसे तत्त्वकी उपेक्षा नहीं की जा सकती ! औपधि रोगीकी इच्छानुसार नहीं दी जाती है । विरोध भी नहीं होगा क्योंकि व्याकरण शास्त्रकी दृष्ठिसे उक्त प्रयोगोंका व्यवहार होगा ही। एक ही अर्थ को शब्दभेदसे जो भिन्न २ रूपसे जानता है, वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्राणीक पतिक हो इन्द्र, शक और पुरन्दर थे तीन नाम हूं, लेकिन सममिरूढनयकी दृष्टि में परमैश्वर्य पर्यायसे युक्त होने के कारण इन्द्र, शकन-शासन पर्यायसे युक्त होनेके कारण शक और पुरदारण पर्यायसे युक्त होने के कारण पुरन्दर कहा जाता है। जो पदार्थ जिस समय जिस पर्याय रूपमें परिणत हो उस समय उसको असी रूप ग्रहण करनेवाला एघंभूतनय है । जैसे इन्द्र तभी इन्द्र कहा जायगा जब वह ऐश्वर्यपर्यायसे युक्त हो, पूजन या अभिषेकके समय वह इन्द्र नहीं कहलायगा। तथा गायको गौ तभी कहेंगे जब वह गमन करती हो, सोने या बैठने के समय उसको गौ नहीं कहेंगे। उक्त नयोंका विप्रय उत्तरोत्तर सूक्ष्म है । नगमकी अपेक्षा संग्रहनयका विषय अल्प है। नैगमनय भाव और अभाव दोनों को विषय करता है लेकिन संग्रहनय ४६
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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