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________________ मार्गदर्शक :- अचार्य श्री सविधिसागर जी महाशवात्त-हिन्दा सार [१।३३ करना स्वरूपविपर्यय है। अत: मिथ्यादर्शनके साथ जो ज्ञान होता है वह मिथ्याज्ञान है और सम्यग्दर्शन के साथ जो ज्ञान होता है वह सम्यग्ज्ञान है । नयों का वर्णन नैगमसंग्रहव्यवहार सूत्रशब्दसमभिरूढेवंभृता नया: ।। ३३ ।। नंगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसून, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय है । जीचादि वस्तुओं में निस्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्म पाये जाते हैं। द्रव्य या पर्याय की अपेक्षासे किसी एक धर्मके कथन करनेको नय कहते हैं। अथवा ज्ञाताके अभिप्राय विशेषका नय कहते हैं । नयके दो भेद है-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । द्रव्यको प्रधानरूपसे विषय करनेवाले नयको द्रव्यार्थिक और पर्यायको प्रधानरूपसे विषय करनेवाले नयको पयोयार्थिक कहते हैं। मैंगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय द्रव्यार्थिक हैं। और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये चार नय पर्यायार्थिक है। भविष्यमें उत्पन्न होनेवाली वस्तुका संकल्प करके वर्तमान में उसका व्यवहार करना नगमनब है। जैसे कोई पुरुष हाथ में कुटार ( कुल्हाड़ी) लेकर जा रहा था। किसीने उससे पूछा कि कहाँ जा रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि प्रस्थ (अनाज नापनका काठका पान-पली) लेनेको जा रहा हूँ। वास्तवमें यह प्रस्थ लेने के लिये नहीं जा रहा है किन्तु प्रस्थक लिये लकड़ी लेनेको जा रहा है। फिर भी उसने भविष्य में बननेवाले प्रस्थका वर्तमान में संकल्प करके कह दिया कि प्राथ लेने जा रहा है। इसी प्रकार लकडी, पानी आदि सामग्रीको इकटे करनेवाले पुरुषसे किसीने पूछा कि क्या कर रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि रोटी बना रहा हूँ। यद्यपि उस समय वह रोटी नहीं बना रहा है लेकिन नगम नयकी अपेक्षा उसका ऐसा कहना ठीक है। जो भेदकी विवक्षा न करके अपनी जातिके समस्त अोंका एक साथ ग्रहण करे वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' शब्दसे संसारके समस्त सत् पदार्थों का. 'द्रव्य' शब्दसे जीव, पुद्गल आदि द्रव्योका और 'घट' शब्दसे छोटे बड़े आदि समस्त घटोका ग्रहण करना संग्रह नयका काम है। संग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये गये पदाथोंके विधिपूर्वक भेद व्यवहार करनेको व्यवहारनय कहते हैं। जैसे संग्रह नय 'सत्' के द्वारा समस्त सत् पदार्थों का ग्रहण करता है। पर व्यबहारनय कहता है कि सतके दो भेद है द्रव्य और गुण । द्रव्यके भी दो भेद हैं । जीप और अजीव । जीवके नरकादि गतियों के भेदसे चार भेद है और अजीव द्रव्यके पुदगल आदि पौंच भेद हैं। इस प्रकार व्यवहारमयके द्वारा वहाँ तक भेद किये जाते है जहाँ तक हो सकते हैं। अर्थात् परम संग्रहनयके विषय परम अभेदसे लेकर ऋजुसूत्र नयकं विषयभूत परमभदकं बीच के समस्त विकर र व्यवहारनरके ही है। भूत और भविष्यत् कालकी अपना न करके केवल वर्तमान समयवर्ती एक पर्यायको ग्रहण करनेवाले नयको ऋजुसूत्र नय कहते हैं । ऋजुनू बनयका विषय अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे इस विपमें कोई दृष्टान्त नहीं दिया जा सकता। प्रश्न--ऋजुत्र नयके द्वारा पदार्थोका कथन करनेसे लोक व्यवहारका लोप ही हो जायगा ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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