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________________ निश्चय और व्यवहारका सम्यग्दर्शन ५५ स्वरूपके दर्शन उसमें कैसे किए जा सकते है ? यह शंका व्यवहार्य है और इसका समाधान भी सीधा और स्पष्ट है कि प्रत्येक आत्मा सिद्धके समान अनन्त चैतन्य है, एक भी अविभाग प्रतिच्छेदकी न्यूनता किसी आत्मार्क चैतन्यमें नहीं है। सबकी आत्मा असंख्यातप्रदेशवाली है, अखण्ड द्रव्य है। मूल द्रव्यदृष्टिसे सभी आत्मानोंकी स्थिति एकप्रकारकी है । विभाव परिणमनके कारण गुणोंके विकाराम न्यूनाधिकता आ गई है। संसारी आत्माएं विभाव पर्यायांको धारण कर नानारूपमं परिणत हो रही है। इस र्गदर्शक रहता है उतनी ही उसकी विभावपरिणतिरूप व्यवहार स्थिति भी सत्य और भूतार्थ है । पदार्थ परिणमनकी दृष्टिमे निश्चय और व्यवहार दोनों भूतार्थ और सत्य हैं । निश्चय जहां मूल द्रव्यस्वभावको विषय करता है, वहाँ व्यवहार परसापेक्ष पर्यायको विषय करता है, निषिय कोई नहीं है। व्यवहारकी अभूतार्थता इतनी ही है कि वह जिन विभाव पर्यायोंको विषय करता है ने विभाग पर्याय है, उपादेय नहीं, शुद्ध इभ्यस्वरूप उपादेय है, यही नवकी भूतार्थता है जिस प्रकार निश्चय द्रव्यके मूल स्वभावको विषय करता है उसी प्रकार शुद्ध सिद्ध पर्याय भी निश्चय का विषय है। तात्पर्य यह कि परनिरपेक्ष द्रव्य स्वरूप और परनिरपेक्ष पर्याएँ निश्चयका विषय हैं और परसापेक्ष परिणमन व्यवहारके विषय है। व्यवहारकी अभूतार्थता वहाँ है जहाँ अमा कहता है कि "में राजा हूँ में विद्वान् है में स्वस्थ है, में ऊंच हूँ, यह नीच है, मेरा धर्माधिकार है, इस धर्माधिकार नहीं है आदि" तब अर्न्त दृष्टि कहता है कि राजा विद्वान् स्वस्थ ऊंच नीच आदि बाह्यपेश होने से देय है इन रूप तुम्हारा मूलस्वरूप नहीं है, वह तो सिद्धके समान शुद्ध है, उसमें न कोई राजा है न रंक, न कोई ऊंच न नीच, न कोई रूपवान् न कुरूपी उसकी दृष्टिमें सब खण्ड चैतन्यमय समस्वरूप समाधिकार है। इस व्यवहारमें अहंकारको उत्पन्न करनेका जी जहर है, भेद खड़ा करने की जो कुटे है निश्चय उसीको नष्ट करता है और अभेद अर्थात् समत्वकी और दृष्टिको ले जाता है और कहता है कि क्या खोच रहा है. जिसे तु नीच और तुच्छ समझ रहा है बहसी अनन्त चैतन्यका अखण्ड मौलिक द्रव्य है, पकृत भेदसे तू अहंकारकी सृष्टि कर रहा है और भेदका पोषण कर रहा है, परीचित उंचनीवभावकी कल्पना धर्माधिकार जैसे भीषण अहंकारी बात बोलता है? इस अनन्त विभिन्नतामय अहंकारपूर्ण व्यवहारससार निश्नय ही एक अभूतशलाका है जो दृष्टिमें व्यवहारका नहीं पड़ने देती। कार्य है। जय 1 पर ये निश्वयकी चरचा करने वाले ही जीवनमें अनन्त भेदांकी कायम रखना चाहते है । व्यवहारलोपका भय पग पगपर दिखाते हैं । यदि दरसा मंदिरमें आकर पूजा कर लेता है तो इन्हीं व्यवहारसोपका भय व्याप्त हो जाता है। भाई व्यवहारका दिप दूर करना ही तो प्रसारका अवसर आता है तो क्यों व्यवहारलोपसे डरते हो ? कचनक इस देश व्यवहारसे चिपटे रहोगे और धर्मके नामपर भी अहंकारका पोषण करते रहोगे ?अहंकारकेलिए और क्षेत्र पड़े हुए हैं, उन कुयोग तो अहंकार कर ही रहे हो ? बाह्य विभूतिके प्रदर्शनसे अन्य व्यवहारोंमें दूसरोंखे श्रेष्ठ बनने का अभिमान पुष्ट कर ही लेते हो, इस धर्मक्षेत्रको तो ममताकी भूमि बनने दो धर्म क्षेत्रको तो धनके प्रभुत्व अ रहने दो। आखिर यह अहंकारक विष कहाँ तक आज विश्व इस अहंकारी भीषण ज्यादाओं भस्मसात हुआ जा रहा है । गोरे कालेका अहंकार हिन्दू मुसलमानका अहंकार, धनी निर्धनका अहंकार सत्ताका अहंकार,ॐषनीचका अहंकार, आदिछूत अछूतका अहंकार आदिइस सहमजिह्न अहंकारनागकी नागदमनी औषधि freeवृष्टि ही है । यह आत्ममात्रको समभूमिपर लाकर उसकी आंख खोलती है कि देखो, मलमे तुम सब कहाँ भिन्न हो ? और अन्तिम लक्ष्य भी तुम्हारा वही समस्वरूपस्थिति प्राप्त करना है तव क्यों बीच पड़ावोंमें अहंकारका जैन करके उनकी मिथ्या प्रतिष्ठाकेलिए एक दूसरे खून के प्यासे हो रहे हो ? धर्मका क्षेत्र तो कमसे कम ऐसा ने दी जहाँ तुम्हें स्वयं अपनी लगाना भान हो और दूसरे भी उसी समदास मान कर सके। "सम्मीलने नयनयोः न हि किचिदस्ति" आंख बजाने पर यह सज नेद तुम्हारे लिए कुछ नहीं है। मांफर्म तुम्हारे साथ वह अहंकारविष तो चला जायना
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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