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________________ ५४ तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना करेगा। यह भाषाका एक प्रकार है। साधक अपनी अन्तर्जन्य अवस्थामै अपने ही आत्माको सम्बोधन करता है कि हे आत्मन्, तू तो स्वभावमे सिद्ध है, बुद्ध है, बीतराग है, आज फिर यह तेरी क्या दशा हो रही है ? तू कषायी और अज्ञानी बना है। यह पहला सिद्ध है बुद्ध है' वाला अंश दूसरे 'आज फिर तरी क्या दशा हो रही है, त कपासी अज्ञानी बना है' इस अंशसे ही परिपूर्ण होता है। इस लिए निश्चयनय हमारे लिए अपने द्रव्यगत मुलस्वभावकी ओर संकेत करता है जिसके बिना हम कषायपंकसे नहीं निकल सकते। अत: निश्चयनयका सम्पूर्ण वर्णन हमारे सामने कागजपर मोटे मोटे अक्षरों में लिखा हुआटॅगा रहे ताकि हम अपनी मूलभूत उस परमदशाको प्राप्त करने की दिशामें प्रयत्नशील रहें। न कि 'हम तो सिद्ध है,कर्मोंसे अस्पष्ट है' यह मानकर मिथ्या अहंकारका पोषण करें और जीवन्तचारित्र्यसे बिमख हो निश्चय कान्तरूपी मिथ्यात्वको बहावें।। मिवेदन-मेरा यही निवेदन है कि, हम सब समन्तभद्रादि आचार्यों द्वारा प्रतिपादित उभयमुखी तत्वव्यवस्थाको समझें । कुन्दकुन्दके अध्यात्मसे अहंकार और परकर्त स्वभावको नष्ट करें, कार्तिकेयकी भावनासे निर्भयता प्राप्त करें और अनेकान्त दृष्टि और अहिंसाके पुरुषार्थ द्वारा शीघ्र ही आत्मोत्रनिके असीम पुरुषार्थमें जुटें। भविष्यको हम बनाएंगे, वह हमारे हाथमें है। कमों के उत्कर्षण अपकर्षण उदीरणा संक्रमण उद्वेलन आदि सभी हम अपने भाषोके अनुसार कर राकते हैं और इसी परम स्वपुरषार्थकी घोषणा हमें इस छन्दमें सुनाई देती है कोटि जन्म तप तपें शानविन कर्म सड़े में । नानीके क्षणमें त्रिगुप्तते सहज टरें ते॥" यह त्रिगुप्ति स्वपुरुषार्थकी सूचना है । इसमें स्वोदवका स्थिर आश्वासन है । नियतिवाद एक अदार्शनिक सिद्धांतोसे समुत्पन्न काल्पनिक भूत है । इसको डाढ़ी पकड़कर हिला दीजिये और तत्वमामाके दाविध मित्रोवहिासागरी जम्होजिषसे नई पीढ़ी को बनाइये । यह बड़ा सीधा उपाय है। न इसमें कुछ कारना है न विचारता है एक ही बान याद कर लो “जो होना होगा मो होगा ही भाई, इस बातका भी उपयोग जब तुम्हारा पुरुषार्थ शक जायनो मांस लेने के लिए कर लो, कुछ हज नहीं, पर यह धर्म नहीं है। धर्म है-स्वपुरुषार्थ, स्वसंशोधन और स्वदृष्टि । महावीरके समयमें मक्खलिगोशाल इस नियतिवादका प्रचारक था। आज सोनगढ़से नियतिवादकी आवाज फिरसे उठी है और वह भी कुन्दकुन्दके नामगर । भाननीय पदार्थ जुदा हैं उनसे तत्त्वव्यवस्था नहीं होती यह मैं पहले लिख चुका है। वों ही भारतवर्षने नियतिवाद और ईश्वरवादकै कारण तथा कर्मवादके स्वरूपको ठीक नहीं समझनेके कारण अपनी यह नितान्त परतन्त्र स्थिति उत्पन्न कर ली थी। किसी तरह अव नव-स्वातन्त्र्योदय हुआ है । इस युगमें वस्तुतत्त्वका यह निरूपण हो जिससे सुन्दर समाजव्यवस्था-पटक व्यक्तिका निर्माण हो। धर्म और अश्यात्मक नामपर और कुन्दकुन्दानार्यक सनामपर आलस्थ-पोषक पुण्य-पापलोपक नियतिवादका प्रचार न हो। हम सम्यक् तत्त्वव्यवस्थाको समय और समन्तभद्रादि आवायोके द्वारा परिशीलित उभयमुखी तत्त्वव्यवस्थाका मनन करें। निश्चय और व्यवहार का सम्यग्दर्शन-- "यस्मात क्रियाः प्रतिफलन्ति म भावशून्या:" अर्थात् भावान्य कियाएँ सफल नहीं होती। यह भाव क्या है ? जिसके बिना समस्त क्रियाएं निष्फल हो जाती है? यह भाव है निश्चयदष्टि । निश्चय रनिरपेक्ष आत्मस्वरूपको कहता है। परमवीतरागता पर उसकी दष्टि रहती है। जो क्रियाएँ इस परमवीनरागनाकी साधक और पोषक हो वे ही सफल हूँ। पुरुषार्थसिद्धयपायम बनाया है कि "निश्चयमिह भूतार्य व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् ।" अर्थात् निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थ। इस भूतार्थता और अभूतार्थताका क्या अर्थ है 'जब आत्मामें इस समय रागद्वेष मोह आदि भाव उत्पन्न हो रहे हैं। आत्मा इन भावों रूपसे परिणमन कर रहा है, तब परनिरपेक्ष सिद्धवत
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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