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________________ ५६ तत्त्वार्थं वृत्ति-प्रस्तावना पर महजो भेवसृष्टि कर जाओगे उसका पाप मानवसमाजको भोगना पड़ेगा। यह मूह मानव अपने पुराने पुरुषों द्वारा किये गये पापको भी बाप के नामपर पोषता रहना चाहता है । अतः मानवसमाजकी हितकामनासे भी 'निश्चयदृष्टि - आत्मसमत्वकी दृष्टि को ग्रहण करो और पराश्रित व्यवहारको नष्ट करके स्वयं शान्तिलाम करो और दूसरोंको उसका मार्ग निष्कंटक कर दो। समसारका सार नहीं है। कुन्दकुन्दकी आत्मा समयसारके गुणगान से उसके ऊपर अर्ध चढ़ाने से, उसे चांदी सोने में मढ़ानेसे सन्तुष्ट नहीं हो सकती। वह तो समयसारको जीवनमें उतारनेसे ही प्रसन्न हो सकती है। यह जातिगत ऊँचनीच भाव, यह धर्मस्थानोंमें विसीका अधिकार किसीका अधिकार इन शंकाही निश्चयको उपादेय और भूतार्थ तो कहेगा पर जीवनमें निश्चयकी उपेक्षा ही कार्य करेगा, उसकी जड़ खोदने का ही प्रयास करेगा। निचयनयका वर्णन तो कागज पर लिखकर सामने टांग लो। जिससे सदा तुम्हें अपने ध्येयका भान रहे। राच पूछो तो भगवान् जिनेन्द्रकी प्रतिमा उसी निश्चयनवकी प्रतिकृति है जो निपट वीतराग होकर हमें आत्ममा सत्यता सर्वात्मसमस्य और परमवीतरागताका पावन सन्देश देती है पर व्यवहारमूडमानव उसका मात्र अभिषेक कर ब्राह्मपूजा करके ही कर्तव्यकी इतिश्री समझ लेता है । उलटे अपने में from after अहंकारका पोषण कर मंदिरमें भी चौका लगाने का दुष्प्रयत्न करता है । 'अमुक मन्दिर में आ सकता हूँ अमुक नहीं इन विधिनिषेधांकी कल्पित अहंकारपोषक दीवार खड़ी करके धर्म शास्त्र और परम्पराके नामपर तथा संस्कृतिरक्षा के नामपर सिरफुड़ोबल और मुकदमेशजोकी स्थिति उत्पन्न की जाती है और इस तरह रौद्रानन्दी रूपका नग्न प्रदर्शन इन धर्मस्थान में आये दिन होता रहता है। विनयावलम्बियों की एक मोटी भ्रान्त धारणा यह है कि ये द्रव्यमें अशुद्धि न मानकर पर्यायको अशुद्ध कहते हैं और द्रयको सदा शुद्ध कहने का साहस करते हैं। जब जनसिद्धान्त में द्रव्य और पर्यायकी पृयकता ही नहीं है तब केवल पर्याय ही अशुद्ध कैसे हो सकती है जब इन दोनोंका तादात्म्य है तब दोनों ही अशुद्ध हैं । दूसरे शब्दोंमं द्रव्य ही पर्याय बनता है । द्रव्यशून्य पर्याय और पर्यायशून्य द्रव्य हो ही नहीं सकता । जब इस तरह दोनों एकसनाक ही है तब अशुद्धि पर्याय तक सीमित रहती है द्रव्य में नहीं पहुँचती यह कथन स्वतः निःसार हो जाता है। पर्यागके परिवर्तन होनेपर इथ्य किसी अपरिवर्तित अंशका नाम नहीं है और न ऐसा अपरिवर्तिष्णु कोई अंश ही द्रव्यमें है जो परिवर्तन सभा अछूता रहता हो किन्तु द्रव्य अग्रण्ट गरिननित होकर पर्याय नाम पाता है। उसकी परिवर्तित पास अनाद्यनन्तकाल तक चालू खती है, इसीको द्रव्य या श्रीव्य कहते हैं। अतः पर्याय अशुद्ध होती है और द्रव्य शुद्ध बना रहता है यह धारणा द्रव्यस्वरूप के अज्ञानका परिणाम है । इसी धारणा निश्चय में सिद्ध है। निविकार है, कर्मबन्धनमुक्त हूँ' आदि वर्तमानकालीन प्रयोग करने लगते हैं । और उसका समर्थन उपर्युक्त भ्रान्तधारणाके कारण करने लगते हैं। पर कोई भी समझदार आपकी नितान्त अशुद्ध दशामें अपनेको शुद्ध माननेका भ्रान्त साहस भी नहीं कर सकता। यह कहना तो उचित है कि मुझमें सिद्ध होने की योग्यता है, में सिद्ध हो सकता हूँ, या सिद्धका मूल द्रव्य जितनं प्रदेवाला जिन गुणधर्मवाला है उनने ही प्रदेशवालय उनने ही गुणधर्मवाला मेरा भी हैं। अन्तर इतना ही है कि सिके सब गुण निगवरण है और मेरे सावरण । इस तरह वाक्ति प्रदेश और अविभाग प्रतिच्छेद समत्व कहना जुदी जान है वह नमागता तो सिद्धके समान निगादिया से भी है। पर हमारी मालिक एकजातीयताका निरूपण होता है न कि वर्तमान कालीन पर्यायका । वर्तमान तो अमर है। इसीतरह निभयनय केवल द्रव्यको विषय करता है यह धारणा भी मिच्दा है वह तो पर निर देश रवभावको विषय करनेवाला है चाहे वह द्रव्य हो या पर्याय सिद्ध पर्याय परनिरपेक्ष स्वभावभूत है, उसे निश्चयनय अवश्य विषय करेगा जिरा प्रकार द्रव्यके भूतस्वरूपपर दृष्टि रखनेसे आत्मस्वरूपकी प्रेरणा t
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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