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________________ परलोकका सम्पदर्शन ५७ मिलती है उसी तरह सिद्ध पर्यामपर भी दृष्टि रखनेसे आरबोन्मुखता होती है। अतः निश्यय और व्यव हारका सम्यग्दर्शन करके हमें विलयनयके लक्ष्य आत्मसमत्वको जीवनव्यवहारमें उतारनेका प्रयत्न करना चाहिए। धर्म-अधर्म की भी यही कसौटी हो सकती हैं जो क्रियाएं आत्मस्वभावकी साधक हों परमधील रागता और आत्मसमताकी ओर से जाँय वे धर्म है शेष अधर्म । परलोक का सम्यग्दर्शन धर्मक्षेत्र में सब ओरसे 'परलोक सुधारों की आवाज सुनाई देती है। परलोका अर्थ है मरणोत्तर मार्गदर्शक बन । अएकार्थी महाके बताए हुए मार्गपर चलने से परलोक मुखी और समद्ध होगा। जैनधर्म भी परलोकके सुखोंका मोहक वर्णन मिलता है। स्वर्ग और नरकका सांगोपांग विवेचन सर्वत्र पाया जाता है। संसारमें चार गतियाँ हैं- मनुष्यगति नियति नरकगति और देवगति । नरक अत्यन्त दुःखने स्थान है और स्वर्ग सांसारिक अभ्युदय के स्थान इसमें सुधार करना मानवशक्तिके बाहरकी शत है। इनकी जो रचना जहाँ है सदा नैसी रहनेवाली है। स्वर्गयें एक देवको कमसे कम सदायोजना बत्तीस देवियाँ अवश्य मिली है। शरीर कभी रोगी नहीं होता। खाने-पीनेकी चिन्ता नहीं। सब मनकामना होते ही समुपस्थित हो जाता है। नरक में सब दुःख ही इसकी सामग्री है। यह निश्चित है कि एक स्थूल शरीरको छोड़कर आत्मा अन्य स्थूल शरीरको धारण करता है। यही परलोक कहलाता है'। में यह पहिले विस्तारसे वता आया हूँ कि आत्मा अपने पूर्वशरीरके साथ ही साथ उस पर्याध उपार्जित किये ज्ञानविज्ञानशक्ति आदिको नहीं छोड़ देता है, मात्र कुछ सूक्ष्म संस्कारोंके साथ परलोकमें प्रवेश करता है। जिस योनि में जाता है वहाँके वातावरणके अनुसार विकसित होकर बढ़ता हैं। अब यह विचारने की बात है कि मनुष्यके लिए मारकर उपस होने के दो स्थान तो ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य इसी जन्म में सुधार सकता है, अर्थात् मनुष्य योनि और पशु योनि इन दो जन्मस्थानोंके संस्कार और बातावरणको सुधारना तो मनुष्य के हाथमें है ही। अपने स्वार्थकी दृष्टिसे भी आये परलोकका सुधारता हमारी रचनात्मक प्रवृत्तिकी मर्यादा है। बीज कितना ही परिपृष्ट क्यों न हो यदि खेत ऊबड़ खाबड़ है, उसमें कास आदि है, सांप चूहे छंदर आदि रहते हैं तो उस बीजकी आधी अच्छाई तो खेतकी खराबी और गन्दे वातावरण से समाप्त हो जाता है। अतः जिसप्रकार चतुर किसान बीजकी उत्तमत्ताकी चिन्ता करता है उसी प्रकार खेतको जोतने बखरने उसे जीत करते, घास फम उत्पादने आदिको भी पूरी पूरी कोशिश करता ही है, तभी उसकी खेती समृद्ध और आशातीत फलप्रसू होती है। इसी तरह हमें भी अपने परलोकके मनुष्यसमाज और पशुसमाज रूप दो तो हम योग्य बना लेना चाहिए कि कदाचित् इनमें पुनः शरीर धारण करना पड़ा तो अनुकूल सामग्री और सुन्दर वातावरण तो मिल जाय। यदि प्रत्येक मनुष्यको यह दृष प्रतीत हो जाय कि हमारा परलोक यही मनुष्य रामाज है और परलोक सुधारने का अर्थ इसी मानव समाजको सुधारना है तो इस मानवसमाजका नकाशा ही बदल जाय। इसी तरह पशुसमाजके प्रति भी सद्भावना उत्पन हो सकती है और उनके खानेपीने रहने आदिका ममुचित प्रबन्ध हो सकता है। अमेरिकाकी गाएँ रेडियो सुनती है और सिनेमा देखती हैं। बाँकी गोशालाएं यहां मानव सोंगे अधिक स्वच्छ और व्यवस्थित है। परलोक अर्थात् दूसरे लोग, परलोकका सुधार अर्थात् दूसरे लोगोंका - मानवसमाजका सुधार । जब यह निश्चित है कि मरकर इन्हीं पशुओं और मनुष्यांम भी जन्म लेने की संभावना है तो समझदारी और सम्यग्दर्शनकी बात तो यह है कि इस मानव और पशु समाज आए हुए दोषको निकालकर इन्हें निर्दोष बनाया जाय। यदि मनुष्य अपने कुकृत्योंसे माननजातिमें क्षय, सुजाक को मृगी आदि रोगोंकी सृष्टि करता है, इसे नीतिभ्रष्ट आचारविहीन, कल केन्द्र और राखीर आदि बना देता है तो वह कैसे अपने मानव परलोकको सुखी कर सकेगा। अरखिर उसे भी इसी नरकभूत समाजमें जन्म सेना पड़ेगा। इसी तरह गाय भैंस आदि पशुओं की दशा यदि मात्र मनुष्यके ऐहिक स्वार्थके ही आधारपर चली तो
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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