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________________ ३३४ तत्वार्थ वृत्ति-हिन्दी-सार [ ११७ तथा दूसरा पर्यायार्थिका भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नयका विषय है तथा शेष द्रव्यार्थिक नयके । निक्षेप प्रमाण विषय होते हैं इसीलिए प्रमाण सकलादेशी कहलाता है । जीवादि पदार्थों के अधिगम के उपायान्तरको बतलाते हैं चारों निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥ ७ ॥ निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इनके द्वारा भी जीवादिपदार्थों का ज्ञान होता है। स्वरूपमात्रका कहना निर्देश है। अधिकारीका नाम बतलाना स्वामित्व है । उत्पत्ति के कारणको साधन कहते हैं। आधार अधिकरण है। कालके प्रमाणको स्थिति कहते हैं। मेद का नाम विधान है । जैसे सम्यग्दर्शन में-तस्वार्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं यह निर्देश हुआ । सामान्य से सम्यग्दर्शनका स्वामी जीव है। विशेषरूप से चौदह मार्गणाओं की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के स्वामीका वर्णन इस प्रकार है आनारकियोंके दो सम्यग्दर्शन होते हैं औपशमिक sarvatra | प्रथम नरक में पर्यातक और अपर्यातक दोनों के क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होते हैं । जिस जीवने पहिले नरक आयुका बन्ध कर लिया है वह जीव बाद में क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन युक्त होने पर प्रथम नरकमें ही उत्पन्न होगा द्वितीयादि नरकों में नहीं, अतः प्रथम नरक में अपर्याप्त अवस्था में भी सम्यग्दर्शन हो सकता है । प्रश्न- श्रायोपशमिक सम्यग्दर्शनयुक्त जीव तिर्यञ्च मनुष्य और नरक में उत्पन्न नहीं होता है अतः अपर्यापक नारक आदिके वैदकसम्यक्त्व कैसे बनेगा ? मार्गदर्शक : उत्तर- नरकादि आयुका बन्ध होनेके बाद जिस जीवने दर्शन मोहका क्षपण प्रारंभ किया है वह वेदकसम्यक्त्वी जोब नरक आदि में जाकर क्षपणकी समाप्ति करेगा। अतः नरक और निर्यञ्चगतिमें अपर्याप्त दशा में भी क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन हो सकता है। तिर्यगति में औपशमिक सम्यग्दर्शन पर्यातकोंके ही होता है। क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्त और अपर्यातक दोनोंके ही होते हैं। तिर्यश्विनी के क्षायिक सम्यदर्शन नहीं होता। क्योंकि कर्मभूमिज मनुष्य ही दर्शन मोहके क्षपणका प्रारंभक होता है और क्षपणके प्रारंभ काल के पहिले तिर्यश्च आयु का बन्ध हो जानेपर भी भोगभूमि में तिर्यच ही होगा तिर्यविनी नहीं । कहा भी है- “कर्मभूमि में उत्पन्न होनेवाला मनुष्य ही केवलीके पादमूलमें दर्शनमोहके क्षपणका प्रारंभक होता है, किन्तु क्षण की समाप्ति चारों गतियों में हो सकती है ।" औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्त तिर्यचिनीके ही होते हैं अपर्याप्त नहीं | मनुष्यगति में क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्त दोनों प्रकार के मनुष्यों को होता है । औपशाभिक पर्यामकों के ही होता है अपर्याप्तोंके नहीं । पर्याप्त मनुष्याणी के ही तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं अपर्याप्तक के नहीं । मनुष्यणी के हायिक सम्यग्दर्शन भाववेद की अपेक्षा बतलाया है । देवगति में पर्याप्तक और अपर्याप्तक देवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं । प्रश्न- अपर्याप्तक देवों के उपशम सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है क्योंकि उपशम सम्यग्दर्शन युक्त प्राणीका मरण नहीं होता ?
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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