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तत्त्वार्थवत्ति-प्रस्तावना के बाद ही प्रथमसूत्रको उत्थानिका शुरू होती है।
(२) अकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिकमें न इस श्लोककी व्याख्या करते है और न इसके पदोंपर कुछ ऊहापोह ही करते हैं।
मार्गदर्शक.:- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज (३) विद्यानन्द स्वयं तत्त्वावलोकवातिकम इसकी व्याख्या नहीं करते। हनने प्रसंगतः इस श्लोक के प्रतिपाद्य अर्थका समर्थन अवश्य किया है। यदि विद्यानन्द स्वयं ऐतिहासिक दृष्टिसे इसके कर्तृत्व सम्बन्धमें असंदिग्ध होते तो वे इसकी यथावद् व्याख्या भी करते।
(४) तत्वार्यसूत्रके ब्याख्याकार समस्त श्वेताम्बरीय आचार्योंने इस श्लोककी व्याख्या नहीं की और न तत्वार्थसूत्रके प्रारम्भमें इस श्लोककी चर्चा ही की है।
यह रलोक इतना असम्प्रादायिक और जैन आप्त स्वरूपका प्रतिनिधित्व करनेवाला है कि इसे सूत्रकारकृत होनेपर कोई भी कितना भी कट्टर इवे. आचार्य छोड़ नहीं सकता था।
अनेकान्त पत्रके पांचवें वर्ष के अंकोंमें इस बलोकके ऊपर अनुकूल-प्रतिकूलपरचा चल चुकी है। फिर भी मेरा मत उपर्युक्त कारणोंके आधारसे इस क्लोकको मूलसूत्रकारकृत माननेका नहीं है। यह श्लोक पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि टीकाके प्रारम्भमें बनाया है इस निश्चयको बदलने का कोई प्रबल हेतु अभीतक मेरी समझ में नहीं आया।
लोकवर्णन और भूगोल-जैनधर्म और जैन दर्शन जिसप्रकार अपने सिद्धान्तोंके स्वतन्त्र प्रतिपादक होनेसे अपना मौलिक और स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं उस प्रकार जैन गणित या जैन भूगोल आदिका स्वतन्त्र स्थान नहीं है। कोई भी गणित हो, वह दो और दो बार ही कहेगा। आजके भूगोलको चाहे जंन लिखे या अजैन जैसा देखेगा या सुनेगा वैसा ही लिखेगा। उत्तग्में हिमालय और दक्षिणमें कन्याकुमारी ही जैन भूगोलमें रहेगी । तथ्य यह है कि धर्म और दर्शन जहां अनुभव के आधारपर परिवर्तित और संशोधित होते रहते है वहीं भगोल अनभवके अनसार नहीं किन्तु वस्तुगत परिवर्तनके अनसार बदलता है। एक नदी जो पहिले अमक गांवसे बहती थी कालक्रमसे उसकी धारा मीलों दूर चली जाती है । भूकम्प, ज्वालामुखी और बाड़ आदि प्राकृतिक परिवर्तनकारणोंसे भूगोलमें इतने बड़े परिवर्तन हो जाते हैं जिसकी कल्पना भी मनुष्यको नहीं हो सकती। हिमालयचे अमुक भागोंमें मगर और छड़ी बड़ी मछलियोंके अस्थिपंजरोंका मिलना इस बातका अनुमापक है कि वहां कभी जलीय भाग था। पुरातत्त्वके अन्वेषणोंने ध्वंसावशेषोंसे यह सिद्ध कर दिया है कि भगोल कभी स्थिर नहीं रहता वह कालक्रमसे बदलता जाता है। राज्य परिवर्तन भी अन्तःभौगिलिक सीमाओंको बदलने में कारण होते हैं। पर समग्र भूगोलका परिवर्तन मुख्यतया बलका स्थल और स्थलका जलभाग होनेके कारण ही होता है। गाँवों और नदियोंके नाम भी उत्तरोत्तर अपभ्रष्ट होते जाते हैं और कुछके कछ बन जाते हैं। इस तरह कालचक्रका धबभावी प्रभाव भूगोलका परिवर्तन बराबर करता रहता है। जैन शास्त्रोंम जो भूगोल और खगोलका वर्णन मिलता है उसकी परम्परा करीब तीन हजार वर्ष पुरानी है। आजके भूगोलसे उसका मेल भले ही न बैठे पर इतने मात्रसे उस परम्पराको स्थिति सर्वथा सन्दिग्ध नहीं कही जा सकती। आजसे ||-३हजारवर्ष पहिले सभी सम्प्रदायोंमें भूगोल और खगोलके विषयमें प्रायः यही परम्परा प्रचलित थी जोजन परम्परामें निबद्ध है। बौद्ध वैदिक और जैन तीनों परम्पराके भूगोल और खगोल सम्बन्धी वर्णन करीम करीब एक जैसे हैं। वही जम्बूद्वीप, विदेह, सुमेरु, देवकुरु,उत्तरकुरु, हिमवान्, आदि नाम और वैसीही लाखों योजनकी गिनती। इनका तुलनात्मक अध्ययन हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि उस समय मू-- . गोल और खगोलकी जो परम्परा श्रुतानुश्रुत परिपाटीसे जैनाचार्योको मिली उसे उन्होंने लिपियन कर दिया है। उस समय भूगोलका यही रूप रहा होगा जैसा कि हमें प्रायः भारतीय परम्पराओंमें मिलता है। आज हमें जिस रूपमें मिलता है उसे उसी रूपमें मानने में क्या आपत्ति है? रहता नहीं । जैन परम्परा इस ग्रन्थके तीसरे और चौथे अध्यायके पानेसे ज्ञात हो सकती है। बोद और वैदिक परम्पराक भूगोन और खगोलका वर्णन इस प्रकार है-..