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________________ ग्रन्थ का स्वरूप मूलभूत तत्त्वोंको संग्रह करनेकी असाम्प्रदायिक दृष्टिसे हुई है कि इसे दोनों जन सम्प्रदाय थोड़े बहुत पाठभेदसे प्रमाण मानते आए हैं। श्वे० परम्परामें जो पाठ प्रचलित है उसमें और दिगम्बर पाठमें कोई विशिष्ट माप्रदायिक मतभेद नहीं है। दोनों परम्पराओंके आचार्योंने इसपर दशों टीका ग्रन्थ लिखे हैं। इस मार्गदर्शक त्योचोच्च प्राथमिसागरस्थानमहाराज आधार बनाया जा सकता है। इसे मोक्षशास्त्र भी कहते हैं क्योंकि इसमें मोक्षके मार्ग और तदुपयोगी जीवादि तत्त्वोंका ही सवि स्तार निरूपण है। इसमें दश अध्याय हैं। प्रथमके चार अध्यायोंमें जीवका, पांचवेंमें अजीब का, छठवें और सातवें अध्याय में आबका, आठवें अध्यापमें बन्धका, नौवें में संवरका तथा ददावें अध्यायमें मोक्षका वर्णन है। प्रथम अध्यायमें मोक्षकामार्ग सम्यग्दान सम्यग्जान और सम्म चारित्रको बताकर जीवादि सात तत्त्वोंके अधिगमके उपाय प्रमाण नय निक्षेप और निर्देशादि सदादि अनुमोगोंका वर्णन है। पांच ज्ञान उनका विषय आदिका निरूपण करके उनमें प्रत्यक्ष परोक्ष विभाग उनका सम्यकच मिथ्यात्व और नोंका विवेचन किया गया है। द्वितीय अध्यायमें जीवके औपशमिक आदि भाव, जीवका लक्षण, शरीर, इन्द्रियाँ योनि 'जन्म आदिका सविस्तार निरूपण है। तृतीय अध्यायमें जीवके निवासमत-अधोलोक और मध्यलोक गत भगोलका उसके निवासियोंकी आयु कायस्थिति आदिका पूरा पूरा वर्णन है। चौथे अध्यायमें ऊवलोकका देवोंक भेद लेश्याएँ आयु काय परिवार आदिका वर्णन है। पांववें अध्यायमं अजीबतत्त्व अर्थात पदगल धम अधर्म आकापा और काल द्रष्योंका समय वर्णन है। क्योंकी प्रदेश संख्या, उनके सरकार, शम्दादिका पुदगल पर्यायत्व, स्कन्ध बननकी प्रक्रिया आदि पुद्गल ट्रंब्यका सवागीण विवेचन है। छठवें अध्यायमें ज्ञानावरमादि कमौके आस्रवका सविस्तार निरूपण है। किन किन बुत्तियों और प्रवृत्तियोंसे किस किस कर्मका आस्त्रव होता है, कैसे मालवमें विशेषता होती है, कौन कर्म पुण्य है. और कौन पाप आदिका विशद विवेचन है। सातवें अध्यायमें शुभं आस्त्रवके कारण, पुण्यरूप अहिंसादि बलोंका वर्णन है। इसमें ब्रतोंकी भावनाएँ उनके लक्षण अतिचार आदिका स्वरूप बताया गया है। आठवें अध्यायमें प्रकृतिबन्ध आदि चारों बन्धोंका, कर्मप्रकृतियोंका उनकी स्थिति आदिका निरूपण हैं। नौवें अध्यायमें संबर तस्वका पूरा पूरा निरूपण है। इसमें गप्ति समिति धर्म अनप्रेक्षा परिषहजय चारिष तप ध्यान आदिका सभेदप्रभेद निरूपण है। दश अध्यायम मोक्षका वर्णन है। सिद्धोंमें भेद किन निमित्तोंसे हो सकता है। जीव ऊर्यगमन क्यों करता है? सिद्ध अवस्थामें कोन कोन भाष- अवशिष्ट रह जाते हैं आदिका निरूपण है। यह अकेला तत्वार्थ सूत्र जैन शान, जैन भूगोल, खगोल, जैनतस्व, कर्मसिद्धान्त, जन चारिष आदि समस्त मुख्य मुख्य विषयोंका अपूर्व आकर है। मंगल इलोक- मोक्षमार्गस्य मेतारम् श्लोक तत्त्वार्थसूत्रका मंगल एलोक है या नहीं यह विषय विवादम पहा हुआ है। यह श्लोक उमास्वामि कतक है इसका स्पष्ट उल्लेख श्रुतसागरसूरिने प्रस्तुत तत्त्वार्थवत्तिम किया है। वे इसकी उत्थानिकामें लिखते हैं कि-याक नामक मध्यके प्रश्नका उत्तर देनेके लिए उमास्वामि भट्टारकने यह मंगल श्लोक बनाया। द्वैयाकका प्रश्न है-'भगवन्, आत्माका हित क्या है?' उमास्वामी उसका उत्तर 'सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्ग: सूत्र में देते हैं। पर उन्हें उत्तर देनेके पहिले मंगलाचरण करनेकी आवश्यकता प्रतीत होने लगती है। श्रुतसागरके पहिले विद्यानन्दि आचार्यले जाप्न परीक्षा (पृ०३) में भी इस श्लोकको सूत्रकारके नामसे उक्त किया है। पर यही विद्यानन्द 'तत्त्वार्थसूत्रका र उमास्वामिप्रभृतिभिः' जैसे वाक्य भी आप्त परीक्षा (पु. ५४)में लिखते हैं जो उमास्यामिके साथ ही साथ प्रभृति पादसे सूचित होनेवाले आचार्योको भी तत्त्वार्थसूत्रकार माननेका या सूत्र शब्दकी गौणार्थताका प्रसंग उपस्थित करते है। यद्यपि अभयनन्दि श्रुतसागर जैसे पश्चातीं व्रन्पकारोंने इस श्लोकको सत्दार्थसूत्रका मंगल लिख दिया है पर इनके इस लेखमें निम्नलिखित अनुपपत्तियां है जो इस श्लोकको पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धिका मंगलश्लोक माननेको शध्य करती है (१) पूज्यपादने इस मंगलश्लोककी न तो उत्थानिका लिखी और न व्याख्या की। इस मंगलश्लोक
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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