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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ८४
तरबात्ति-प्रस्तावना
अन्धका बाघ स्वरूप-- तस्वार्थाधिगमसूत्र जैनपरम्परा की गीता बाइबिल कुरान या जो कहिए एक पवित्र ग्रन्ध है। इसमें बन्धनमुक्तिक कारणोंका सांगोपांग विवेचन है। जैनधर्म और जनदर्शनके समस्त मूल आधारोंकी संक्षिप्त सूचना इस सूत्र ग्रन्थसे मिल जाती है। भ- महावीरके उपदेश अर्धमागधो भाषामें होते थे जो उस समय मगध और बिहारकी जनबोली थी। शास्त्रोंमें बताया है कि यह अर्धमागधी भाषा अठारह महाभाषा और सातसौ लघुभाषाओं के शब्दोंसे समृद्ध थी। एक कहावत है-"कोस कोस पर पानी बदल चारकोस पर पर बानी।" सो यदि मगध देश काशीदेश और विहार देवामें चार चार कोसपर बदलनेवाली बोलियोंकी वास्तविक गणना की जाम तो वे७१८ से कहीं अधिक हो सकती होंगीं। अठारह महाभाषाएँ मुख्य मुख्य अठारह जनपदोंकी राजभाषाएँ कहीं जाती थी। इनमें नाममात्रका ही अन्तर था। क्षुल्लकभाषाओंका अन्तर तो उच्चारणकी टोनका ही समझना चाहिए। जो हो, पर महावीरका उपदेश उसमयकी लोकभाषामें होता था जिसमें संस्कृत जंसी वर्गभाषाका कोई स्थान नहीं था। बद्धकी पालीभाषा और महावीरकी अर्धमागधी भाषा करीब करीब एक जैसी भाषाएँ हैं। इनमें वही चारकोसकी बानी काला भेद है। अर्धमागधीको सर्वार्धमागधी भाषा भी कहते हैं और इसका विवेचन करते हुए लिखा है
अर्ष भगवद्भाषाया मगषवेशभाषात्मकम् अधं च सर्वदेवाभाषारमकम्" अर्थात्-भगवान्की भाषामें आधे शब्द तो मगध देशकी भाषा मागधी के थे और आधे शब्द सभी देशोंकी भाषाओं तात्पर्य यह कि अर्धमागधी भाषा वह लोकभाषा थी जिसे प्रायः सभी देवाके लोग समझ सकते थे। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि महावीरकी जन्मभूमि मगध देश थी, अत: मागधी उनकी मातृभाषा थी और उन्हें अपना विश्वशान्तिका अहिमा सन्देश सब देशोंकी कोटि कोटि उपक्षित और पतित जनता तक भेजना था अतः उनकी झोली में सभी देशोकी बोलीके शब्द शामिल थे और यह भाषा उस समयको साधिक जनताकी अपनी बोली थी अर्थात सबकी बोली थी। जनबोलीमें उपदेश देने का कारण बतानेवाला एक प्राचीन श्लोक मिलता है
"बालस्त्रीसन्दमूर्खाणां वृणां चारित्र्यकांक्षिणाम् ।
प्रतिबोधनाय तस्वनः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥" अर्थात्-बालक स्त्री या मूर्खसे मूर्ख लोगोंको, जो अपने चारित्र्यको समुन्नत करना चाहते हैं. प्रतिबोध देन के लिए भगवान्का उपदेश प्राकृत अर्थात् स्वाभाविक जनबोलीमें होता था न कि संस्कृत अर्थात् बनी हुँदै बोलीकृत्रिम वर्गभाषामें। इन जनबोलीके उपदेशोंका संकलन 'आगम' कहा जाता है। इसका बड़ा बिस्तार था। उस समय लेखनका प्रचार नहीं हुआ था। सब उपदेवा कण्ठपरम्परा से सुरक्षित रहते थे। एक दूसरेसे सुनकर इनकी धारा चलती थी अतः ये 'श्रुत' कहे जाते थे। महावीरके निर्वाणके बाद यह श्रुत परम्परा लुप्त होने लगी और ६८३. वर्ष बाद एक अंगका पूर्ण ज्ञान भी शेष न रहा। अंगके एक देशका ज्ञान रहा । श्वेताम्बर परम्परामें बौद्ध संगीतियोंकी तरह वाचनाएँ हई और अन्तिम वाचना देवधिगणि क्षमाश्रमणके तत्त्वावधानम वीर संवत् १८० वि० सं० ५१० में दलभीमें हुई। इसमें आगमोंका त्रुदिन अत्रुटित जो रूप उपलब्ध था संकलित हुआ। दिगम्बर परम्परामें ऐसा कोई प्रयत्न हुआ या नहीं इसकी कुछ भी जानकारी नहीं है। दिगम्बर परम्परामें विक्रमकी द्वितीय तृतीय शताब्दीमें आचार्य भूतबलि पुपदन्त और गुणधरने षट्वंडागम और कसायपाहुउकी रचना आगमाश्रित साहित्यके आधारसे की। पीछ कुन्दकुन्द आदि आचार्योने आगम परम्पराको केन्द्र में रखकर तदनुसार स्वतन्त्र ग्रन्थ रचना की।
अनुमान है कि विक्रमकी तीसरी चौथी शताब्दीमें उमास्वामी भट्टारकन इस तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की थी। इसीसे जन परम्परा संस्कृतग्रन्थनिर्माणया प्रारम्भ होता है। इन तस्वार्थसत्रकी रचना इतने