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तत्त्वार्थनि-प्रस्तावना "यदि आप पूछे-'क्या परलोक है ?' तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं क ता, वैसा भी नहीं क ता ,सरी तरहसे भी नहीं कहता । मैं मह भी नहीं कहता कि वह नहीं है। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है । परलोक नहीं नहीं है। परलोक है भी, और नहीं भी है। पुरलोक न है और नहीं है।"
'मागदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज
संजयके परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्तिके सम्बन्धके ये विचार शतप्रतिशत अनिश्चयवादके हैं। यह स्पष्ट कहता है कि-"यदि मैं जानता हो तो बताऊँ।" संजयको परलोक मुक्ति आदिके स्वरूप का कुछ भी निश्चय नहीं था। इसलिए उसका दर्शन बकोल राहुलजीके मानवकी सहजबुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहता और न कुछ निश्चयकर भ्रान्त धारणाओंकी पुष्टि ही करना चाहता है । तात्पर्य यह कि संजय घोर अनिश्चयवादी था।
बुद्ध और संजय-बुद्धने "लोकनित्य है. अनित्य है,नित्य-अनित्य है,न नित्य न अनित्य हं, लोक अन्तवान् है, नहीं है, है-नहीं है, न है न नहीं है, निर्वाणके बाद तथागत होते में, नहीं होतं, होते-नहीं होते, न होते न नहीं होते, जीव शरीरसे भिस है, जीव शरीरसे भिन्न नहीं है।'' (माध्यमिक वृत्ति पृ. ४४६) इन चौदह वस्तुओंको अध्याकृत कहा है। मजिनमनिकायम (२०२३) इनकी संख्या दश है। इसमें आदिके दो प्रश्नोंमें तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिनाया गया है। इनके अन्याकृत होनेका कारण बुद्धने बताया है कि इनके बारेमें कहना सार्थक नहीं, भिशुचमकि लिए उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद निरोध शान्ति परमज्ञान या निर्वाणके लिए आवश्यक है। तात्पर्य यह कि बुद्धकी दृष्टिमें इनका जानना मुमुक्षुके लिए बावश्यक नहीं मा। दूसरे शब्दोंमें बुद्ध भी संजयकी तरह इनके बारेमें कुछ कहकर मानवको सहल बुसिको भ्रममें नहीं डालना चाहते थे और न भ्रान्त धारणाओंको पुष्ट ही करना चाहते थे। हाँ संजय जब अपनी अज्ञानता या अनिश्चयको साफ साफ शब्दोंमें कह देता है कि यदि में जानता होऊ तो बताऊँ, तब बुद्ध अपने जानने न जाननेका उल्लेख न करके उस रहस्यको शिष्योंके लिए अनुपयोगी, बताकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। किसी भी ताकिकका यह प्रश्न अभी तक असमाहित ही रह जाता हैं कि इस अव्याकृतता और संजयके अनिश्चयवायमें क्या अन्तर है? सिवाय इसके कि संजय फक्कड़की तरह खरी खरी बात कह देता है और बुद्ध ब) आदमियोंकी बालीनताका निर्वाह करते हैं।
युद्ध और संजय ही क्या, उस समयके वातावरणमें आत्मा लोक परलोक और मुस्तिके स्वरूपके सम्बन्धमें है (सत्), नहीं (असत्) है-नहीं (सत् असत् उभय), न है न नहीं है (अवक्तव्य या अनुभय)' ये चार कोटियाँ गूज रही थीं। कोई भी प्राश्निक किसी भी तीर्थकर या आचार्यसे बिना किसी संकोचके अपने प्रश्नको एक साँसमें ही उक्त चार कोटियोंमें विभाजित करके ही पूछता था। जिस प्रकार आज कोई भी प्रश्न मजदुर और पूंजीपति, शोषक और शोष्पके द्वन्द्वकी छायामें ही सामने आता है, उसी प्रकार उस समय आस्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थोके प्रश्न सत् असत् उभय और अनुभव-अनिर्वचनीय इस चतुष्कोटिमें आवेष्टित रहते थे। उपनिषद् और ऋग्वेद में इस चतुष्कोटिके दर्शन होते हैं। विश्वके स्वरूपके सम्बन्धमें सत्से असत् हुआ ? या सत्से सत् हुआ ? विश्व सत् रूप है ! या असत् रूप है, या सदसत उभयरूप ह या सदसत दोनों रूपसे अनिर्वचनीय है? इत्यादि प्रश्न उपनिषद् और वेदम बराबर उपलब्ध होते है ? ऐसी दशाम राहुलजीका स्यावादके विषयमें यह फतबा दे देना कि संजयके प्रश्नोंके शब्दोंसे या उसकी चतुर्भगीको तोड़मरी कर सप्तभंगी बनी-कहाँतक उचित है यह वे स्वयं विचारें।
बुद्धके समकालीन जो छह तीथिक थे उनमें निम्गण्ठ नाथपुष महावीरकी, सर्वज्ञ और सर्वदशी के रूपमें प्रसिद्धि थी । वे सर्वन और सर्वदर्शी थे या नहीं यह इस समयकी चरचा का विषय नहीं है, पर वे बिशिष्ट तत्वविचारक थे और किसी भी प्रपनको संजयकी तरह अनिश्चयकोटि या