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स्याद्वाद
कल्पित धर्मों तक व्यवहारके लिए भले ही पहुँन जाय पर वस्तुभ्यवस्थाके लिए वस्तुकी सीमाको नहीं लापता । अत: न यह संशयवाद है, न अनिश्चमवाद है और न संभावनाबाद ही, किंतु खरा अपेक्षा. प्रयुक्त निश्चयवाय है।
इसी तरह डॉ. देवराजजीका पूर्वी और पश्चिमी दर्शन (पृ१६५) में किया गया स्यात् शन्द का 'कदावित्' अनुवाद भी भ्रामक है । कदाचित शब्द कालापेक्ष है। इसका सीधा अर्थ है किसी समय ।
और प्रचलित अर्थमें यह संशयकी ओर ही मुकता है । स्यान् का प्राचीन अर्थ है कम्नित्-अर्थात् किसी निश्चित प्रकारसे, स्पष्ट शब्दोंमें अमुक निश्चित दृष्टिकोणसे । इस प्रकार अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयबाद ही स्थाद्वादका अभ्रान्त वाच्यार्थ है।
महापंडित राहल सांकृत्यायनने तथा इतः पूर्व प्रो० कोबी आदिने स्यापदकी उत्पत्तिको संजयष्टिपुत्तके मतसे बताने का प्रयत्न किया है। राहुलजीने दर्शन-दिग्दर्शन (पृ० ४९६) में लिखा है, कि -"आधुनिक जनदर्शनका आधार स्यावाद है। जो मालम होता है संजयवेलष्ठिपत्तके चार अंग मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज वाल अनकान्तवाको लेकर उसे सात "अंगवाल किया गया है। संजयने तत्त्वों (परलोक देवता ) क शारेमें कुछ भी निश्चयात्मक रूप से कहनसे इनकार करते हुए उस इनकारको चार प्रकार कहा है
१है ? नहीं कह सकता। २ नहीं है ? नहीं कह सकता । ३ है भी और नहीं भी नहीं कह सकता । ४ न है और न नहीं है ? नहीं कह सकता । इसकी तुलना कीजिए जनोंके सात प्रकारके स्याद्वादसे१ है ? हो सकता है (स्यादस्ति) २ नहीं है ? नहीं भी हो सकता है (स्थानास्ति) ३ है भी और नहीं भी ? है भी.और नहीं भी हो सकता (ग्यादस्ति च नास्ति च) उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा मकते हैं (-वक्तव्य है)? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैं। स्याम् (हो सकताह ) क्या यह कहा जा सकता है (-वक्तव्य) है? नहीं, स्याद् अ-बक्तव्य ह । ५ 'स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है। ६ स्याद् नास्ति' क्या यह नक्तव्य है : नहीं, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है।
७ 'स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं 'स्यादस्ति च नास्ति च अ-ब क्तव्य है। दोनों मिलान से मालूम होगा कि जैनोंने संजयके पहिलेवाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) को अलग करके अपने स्याहादकी छह भगियाँ बनाई है और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है' को जोड़कर 'सद भी अवयतव्य है यह सास भंग तैयार कर अपनी सप्तभंगी पूरी की।..... इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (-म्याद्) की स्थापना न करना जो कि संजय का वाद था, उसीको संजयके अनयायियोंके लप्त हो जानेपर जनानं अपना लिया और उसके चतुर्भगी न्यायको सप्तभंगीमें परिणत कर दिया।"
राहुलजीने उक्त सन्दर्भ में सप्तभंगी और स्यादको न समझकर केवल शब्दसाम्य में एक -नये मतकी वृष्टि की है। यह तो ऐसा ही है जैसे कि चोरसे 'क्या तुम अमुक जगह गये थे? यह पूछने पर वह कहे कि "मैं नहीं कह सकता कि गया था" और जज अन्य प्रमाणोसे यह सिद्धकर दे कि 'चोर अमुक जगह गया था। तब झाब्दसाम्य देखकर यह कहना कि जजका फैसला चोरके बयानसे निकला है।
संजयवेष्ठित्तक दर्शनका विवेचन स्वयं राहुलजीने (पृ० ४९१) इन शब्दाम किया है