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________________ स्यावाद विक्षेपकोटिमें और बुद्धकी तरह अन्याकृत कोटिम डालने वाले नहीं थे और न दिय की महज जिज्ञामा को अनुपयोगिताके भयप्रद चक्करमं डुबा ऐना चाहते थे। उनका विश्वास था कि संघके पंचमेल व्यक्ति जब तक वस्तुतत्त्वका ठीक निर्णय नहीं कर लेते तबतक उनमें छोद्धिक दृढ़ता और मानसनल नहीं आ सकता। वे सदा अपने समानशील अन्य मंघके भिक्षुओंके सामने अपनी बौद्धिक दीनताके कारण इतरभ रहेंगे और इसका असर उनके जीवन और आचार पर आये बिना नहीं रहेगा। वे अपने शिष्योंको पर्दबन्द पधिनियोंकी तरह जगत्के स्वरूप विचारकी बाह्य हवासे अपरिचित नहीं रखना चाहते थे, किन्तु चाहलं थे कि प्रत्येक मानव अपनी सहज जिज्ञासा और मननशक्तिको वस्तुके यथार्थ रवरूपके विचारकी और लगावे। न उन्हें बुद्धकी नरह यह भय व्याप्त था कि यदि आत्माके सम्बन्धम है कहते हैं तो शाश्वसवाद अर्थात उपनिषदवादियोंकी तरह लोग नित्यत्वकी ओर झुक जायगे और नहीं है' कहनमे उग्रवाद अर्थात चार्वाककी तरह नास्तिकत्वका प्रसंग प्राप्त होगा, अत: इस प्रश्नको अव्यावृन रखना ही श्रेष्ठ है। वे चाहते थे कि मौजुद तर्कोका और मंगाका समाधान वस्तुस्थितिक आधारसे होना * चाहिये। अतः उन्होंने वस्तुस्वरूपका अनुभव कर यह बताया कि जगत्का प्रत्येक सत् मार्गदर्शक :- आचार्यश्री सविधिसागर जी महाराज "राहे वह चेतनजातीय होथी अंचलनजातीय परिवर्तनशील है । बह निसर्गतः प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। उसकी पर्याम बदलती रहती है। उसका परिणमन कभी सदृश भी होता है कभी विसदृश भी। पर परिणमनसामान्यके प्रभावसे कोई भी अछूता नहीं रहता। मह एक मौलिक नियम है कि किसी भी सत् का सर्वथा उम्छेद नहीं हो सकता, वह परिवर्तित होकर भी अपनी मौलिकता या सत्ताको नहीं खो सकता। एक परमाणु है वह हाइड्रोजन बन जाय, जल बन जाय, भार बन आय, फिर पानी हो जाय, पथिवी बन जाय, और अनन्त आकृतियों या पर्यायोंको शरण कर ले, पर अपने अध्यल या मौलिकत्व को नहीं खो सकता। किसीकी ताकत नही जो उम परमाणकी हस्ती या अस्तित्वको मिटा सके। तात्पर्य यह कि जगत्में जितने 'सत्' है उसने बने रहेंगे, उनमें से एक भी कम नहीं हो सकता, एक दूसरे में विलीन नहीं हो सकता। इसी तरह न कोई नया 'सत्' उत्पन्न हो सकता है। जितने हैं उनका ही आपमी संयोग वियोगोंके आधारसे यह विश्व जगत (गच्छनौति जगत् अर्थात् नाना रूपोंको प्राप्त होना) बनना रहता है। तात्पर्य यह कि-विश्वमं जितनं सन् है उनमें से न तो एक कम हो सकता है और न एक बड़ सकता है। अनन्त जड़ परमाणु, अनन्त आत्माएं, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश और असंख्य कालाण इतने सत् है। इनमं धर्म अधर्म आकाश और काल अपने स्वाभाविक रूपमें सदा विद्यमान हत हैं उनका विलक्षण परिणमन नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि ये कटस्थ नित्य हैं किन्तु इनका प्रतिक्षण जो परिणमन होता है, वह सदश स्वाभाविक परिणमन ही होता है। आत्मा और पुद्गल ये दो दम्प एक दूसरेको प्रभावित करते हैं। जिस समय आत्मा शुद्ध हो जाता है उस समय वह भी अपने प्रतिक्षणभावो स्वाभाविक परिणमनका ही स्वामी रहता है, उसमें विलक्षण परिणति नहीं होती। जबतक आत्मा अउ है तबतक ही इसके परिणमनार राजातीय जीवान्नरका और विजासीय पुद्गलका प्रभाब आनसे विलक्षणता आनी है। इसको नानासाना प्रत्येकको स्वानुभवसिम है। जड़ पुद्गल ही एक ऐसा विलक्षण द्रव्य है जो मदा सजातीय में भी प्रभावित होता है और विजातीय चेननसे भी । इमी पूगल द्रव्य के चमत्कार आज विज्ञान के द्वारा हम सबके सामने प्रर्रतुत है। इसीक होनाधिक संयोग-वियोगोंके फलस्वरूप असंख्य आविष्कार हो रहे हैं। विद्युन शन्द आदि इसीके रूपान्तर है. इमीकी शक्तियाँ हैं। जीनको अशुद्ध दशा इसीके संपर्कसे होती है। अनादिसे जीव और पूदगाल का ऐसा संयोग है जो पर्यापान्तर लेने पर भी जीव इसके मंयोगसे मुक्त नहीं हो पाता और उसमें बिभाव परिणमन-राग ष मोह अज्ञानरूप दशा होती रहती हैं। जब यह जीव अपनी चारित्रसाधना
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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