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________________ 1 तस्वार्थवृति प्रस्तावना द्वारा भूना समर्थ और स्वरूपप्रतिष्ठ हो जाता है कि उस पर बाह्य जगत्‌का कोई भी प्रभाव न पड़ सके तो वह मुक्त हो जाता है और अपने अतुल वैतन्यमें स्थिर हो जता है । प्रतिक्षण परिवर्तित स्वाभाविक चैतन्यमें लीन रहता है। फिर उसमें अशुद्ध दशा नहीं होती । अन्ततः मुक्त जीव अपने गुद्गल परमाणु ही ऐसे है जिनमें शुद्ध या अशुद्ध किसी भी दशामें दूसरे संयोगक आधारसे नाना आकृ तियाँ और अनेक परिणमन संभव हैं तथा होते रहते हैं। दस जगत् व्यवस्थामं किसी एक ईश्वर जैसे नियन्ताका कोई स्थान नहीं है। यह तो अपने अपने संयोग-वियोगों परिणमनशील है। प्रत्येक पदार्थंका अपना सहज स्वभावजन्य प्रतिक्षणभावी परिणमनचक्र नालू है। यदि कोई दूसरा संयोग आ पड़ा और उस द्रव्यने इसके प्रभावको आत्मसात् विभागदेरिया मन आत्होसार श्री वश गति से बदलता चला जायगा। हॉइड्रोजनका एक अणु अपनी गति से प्रतिक्षण हाइड्रोजन रूपमें बदल रहा है। यदि ऑक्सीजनका अणु उसमें आ जुटा तो दोनों का जलरूप परिणमत हो जायगा। वे दोनों एक जलबिन्दु रूपसे सदृश संयुक्त परिणमन कर लेंगे। यदि किसी वैज्ञानिक के विश्लेषण प्रयोगका निमित्त मिला तो वे दोनों फिर जुदा जुदा भी हो सकते हैं। यदि अग्निका संयोग मिल गया तो भाप बन जायेंगे। यदि सांपके मुखका संयोग मिला विषबिन्दु हो जायेंगे । तात्पर्य यह कि यह विश्व साधारणतया पुद्गल और अशुद्ध जीवके निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धका वास्तविक उद्यान है। परिणमनचत्र पर प्रत्येक द्रव्य चढ़ा हुआ है। वह अपनी अनन्त योग्यताओं के अनुसार अनन्त परिणमनोंको क्रमशः धारण करता है । समस्त 'सत् के समुदायका नाम लोक या विश्व 1 इस दृष्टिसे अब आप लोकके शाश्वत बोर अशाश्वत वाले प्रश्नको विचारिए -- ( १ ) क्या लोक शाश्वत है ? हाँ, लोक शाश्वत है। द्रव्योंकी संख्या की दृष्टि से, अर्थात् जितने सत् इसमें हैं उनमेंका एक भी सत् कम नहीं हो सकता और न उसमें किसी नये सत्की वृद्धि ही हो सकती है । न एक सतू दुसरेमं विलीन ही हो सकता है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जो इसके अंगभूत द्रव्योंका लोप हो या वे समाप्त हो जाँय । ७४ (२) क्या लोक अशाश्वत है? हाँ, लोक अशाश्वत है, अंगभूत द्रव्योंके प्रतिक्षण भावी परिणमनां की दृष्टि से ? अर्थात् जितने सत् हैं वे प्रतिक्षण सदृश या विसदृश परिणमन करते रहते हैं। इसमें दो क्षण तक ठहरनेवाला कोई परिणमन नहीं है। जो हमें अनेक क्षण ठहरनेवाला परिणमन दिखाई देता है वह प्रतिक्षणभावी सदृश परिणमनका स्थूल दृष्टिसे अवलोकनमंत्र है। इस तरह सतत परिवर्तनशील संयोगfaraint दृष्टिसे विचार कीजिये तो लोक अशाश्वत है, अनित्य है, प्रतिक्षण परिवर्तित है। (३) क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों रूप है ? हाँ कीजिए तो लोक शाश्वत भी हूं ( द्रव्य दृष्टिसे ) अवाश्वित भी को क्रमशः प्रयुक्त करनेपर और उन दोनों पर स्थूल दृष्टिसे प्रतिभासित होता है। क्रमशः उपर्युक्त दोनों दृष्टियोंसे विचार ( पर्याय दृष्टिसे ) । दोनों दृष्टि कोणों विचार करनेपर जगत् उभयरूप ही (४) क्या लोक शाश्वत और अशास्वत दोनों रूप नहीं है ? आखिर उसका पूर्णरूप क्या हूँ ? हाँ, लोकका पूर्णरूप भवक्तव्य है, नहीं कहा जा सकता। कोई शब्द ऐसा नहीं जो एक साथ शाश्वत और अशात इन दोनों स्वरूपोंको तथा उसमें विद्यमान अन्य अन त धर्मोको युगपत् कह सके। अतः शब्दकी असामर्थ्य के कारण जगत्का पूर्णरूप अवक्तव्य है, अनुभय है, वचनातीत है। इस विरूपण में आप देखेंगे कि वस्तुका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है, अनिर्वचनीय या अथक्तव्य है। यह चौथा उत्तर बस्तुके पूर्णरूपको युगपत् कहने की दृष्टिसे है। पर बही जगत् शाश्वत कहा जाता है द्रव्यदृष्टिसे अशाश्वत कहा जाता है पर्यायदृष्टिसे इस तरह मूलतः चौथा, पहिला और ये तीन प्रश्न मौलिक है। तीसरा उभयरूपताका प्रदन तो प्रथम और द्विनीयके संयोगरूप द्रुमरा
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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