________________
स्याबाद
७५
है। अब आप विचार कि संजयने जब लोकके शाश्वत और अशाश्वत आदिक बारेमें स्पाट कह दिया त्रि में जानता होऊँ नो वताऊँ और बद्धन कह दिया कि इनके चक्करमें न पडो, इराका जानना उपयोगी नहीं है, तब महावीरने उन प्रश्नोंका वस्तुस्थितिक अनुसार यथार्थ उना दिया और शिष्पांकी जिज्ञामा का ममाधान कर उनको बौद्धिक दीननामे त्राण दिया। इन प्रश्नोंका स्वरूप इस प्रकार है--- प्रश्न संजय बुद्ध
महावीर १. श्या लोक शाश्वत है ? मैं जानता होऊं तो इसका जानना अनु- हाँ, लोक द्रव्य दष्टिसे
भ्रता, (अनिश्चय, पयोगी है (अन्याकुत, शाश्वत है, इसके किसी भी विक्षेप) अकथनीय) सतका सर्वधा नाश नहीं
हो सकता। २. क्या लोक अशाश्वत है?
हो, लोक अपने प्रतिक्षण भावी परिवर्तनोंकी दृष्टिमे अशाश्वत है, कोई भी
परिवर्तन दो क्षणस्थायी नहीं मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज ३. क्या लोक शाश्वत और अ
है। हाँ, दोनों दष्टिकोणोंसे शाश्वत है ?
क्रमश: विचार करने पर लोकको शाश्वत भी कहते है
और अशाश्वत भी। ४, क्या लोक दोनों रूप नहीं है
हाँ, ऐसा कोई शब्द नहीं जो अनुमय है ?
लोकके परिपूर्ण स्वरूपको एक साथ समय भावसे कह सके। अत: पूर्णरूप से वस्नु अनुभय. है, अब
नथ्य है, अनिर्वचनीय है। संजय और बुद्ध जिन प्रश्नों का समाधान नहीं करते, उन्हें अनिश्चय या अव्याकृत कहकर अपना पिण्ड छुड़ा लेते हैं, महावीर उन्हींका वास्तविक युक्तिसंगत समाधान करते हैं। इस पर भी राहलजी, और स्य. धर्मानन्द कोसम्बी आदि यह कहनका साहरा करते है कि 'संजयके अन मावियोंके लुप्त हो बानपर संजयके बादको ही जैनियोंने अपना लिया।' यह तो ऐसाही है जैसे कोई कहे कि "भारतमें रही परसन्त्रताको ही परतन्त्रताविधायक अंग्रेजोंके चले जानेपर भारतीयोंने उसे अपरन्त्रता (रवतन्त्रता) रूपसे अपना लिया है, क्योंकि अपरतन्त्रतामं भी 'प र तन्त्र ना' ये पांच अक्षर तो मौजूद है ही। या हिंसाको ही युद्ध और महावीरने उसके अनुयायियोंके लुप्त होनेपा अहिसारूपसे अपना लिया है क्योंकि अहिंसा में भी 'हि सा' ये दो अक्षर है ही।" यह देखकर तो और भी आश्चर्य होता है कि आप . ४८४) अनिश्चिततावादियोंकी सुचीमें संजयके साथ निग्गंठ नाथपृष (महायोर) का नाम भी लिख जाते हैं, तया (प० ४९१) संजयको अनेकान्तवादो भी। क्या इसे धर्मकीनिके शब्दों में 'विग् व्यापकं तमः नहीं कहा जा सकता ?
'स्पात' शब्दके प्रयोगसे साधारणतया लोगोंको संशय अनिश्चय या संभावनाका श्रम होता है। पर यह तो भाषाकी पुरानी शैली है उस प्रसंगकी, जहाँ एक वादका स्थापन नहीं होता। एकाधिक भेद या विकल्पको सूचना जहाँ करनी होती है वहाँ 'स्यात् पदका प्रयोग भाषाकी शैलीका एक रूप रहा है जैसा कि मज्झिमनिकायके महाराहुलोवाद मत्तके निम्नलिखित अवतरणसे जात होता है-कतमा राहुल च तेजो