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तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना धातु ? तेमोधातु सिया अजमत्तिका सिया बाहिरा।" अर्थात् जो धातु स्यात् आध्यात्मिक है, स्यात् बाल है। यही सिया (स्यात) शब्दका प्रयोग तेजो धातुके निश्चित भेदोंकी सूचना देता है न कि उन भदोंका संशय अनिश्चय या संभावना बताता है। आध्यात्मिक भेद के साथ प्रयुक्त होनेवाला स्यात् शब्द . इस वातका द्योतन करता है कि तेजी धातु मात्र आध्यात्मिक ही नहीं है किन्तु उससे व्यतिरिक्त बाह्य
भी है। इसी तरह स्यादस्ति में अस्तिके साथ लगा हुआ ''यात्' शब्द सूचित करता है कि अस्तिसे भिन्न धर्म भी बस्तुमें है केबल अम्लिधर्मरूप ही वस्तु नहीं है। इस तरह 'स्यात्' शब्द न शायदका न अमिश्नयका और न सम्भावनाका सिरहास निसिवाय अन्य अशेष धर्मोकी सूचना देना है जिमेसे"योती बस्तुको निदिष्ट धर्ममाष रूप ही न समझ बैठे।
सप्तभंगी--वस्तु मूलत: अनन्तधर्मात्मक है। उसमें विभिन्न दृष्टियोंमे विभिन्न विवाओंसें अनन्त धर्म है। प्रत्येक धर्मका विरोधी धर्म भी दष्टिभेदसे वस्तुमं मम्भव है। जैसे 'घटः स्यादस्ति' में घट है अरने द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादासे। जिस प्रबार घटमें स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तित्व धर्म है उसी तरह घटव्यतिरिक्त अन्य पदार्थोका नास्तिब्ध भी घटमें है। यदि घटभिन्न पार्योवा नास्तित्त्र घटमें न पाया जाय तो घट और अन्य पदार्थ मिलकर एक हो जायेंगे। अल: घट स्यादस्ति और रुपान्नास्ति झा है। इसी तरह वस्तुमें व्यष्टिगे नित्यत्व और पर्यायदृष्टिगे अनित्यत्व आदि अनकों विरोधी युगल धर्म रहते हैं। एक वस्तु में अनन्त सप्तभंग बनते हैं। जब हम घटक अस्तित्वका विचार करते हैं तो अस्तित्वविषयक सान भंग हो सकते हैं। जैसे गंजयके प्रश्नोत्तर या बुद्धक्रे अव्याकृत प्रश्नोत्तरमें हम चार कोटि तो निश्चित रूपसे देखते है--सत् असत् उभय और अनु'भय । उमी तरह गणित के हिसाबग नीन मुल भंगोंको मिलानेपर अधिकसे अधिक सात अपनरुस्त भंग हो सकते हैं। जैसे घड़के अस्तित्वका विचार प्रस्तुत है तो पहिला अस्तित्व, धर्म दूसरा विरोधी नास्तित्व धर्म और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य जो वस्तु पूर्ण रूपको सूचना देता है कि वस्तू पूर्णरूपसे ववनके अगोचर है, उसके विगद रूपको याद नहीं छू सकते। अबक्तव्य धर्म इस अपेक्षामे है कि दोनों धर्मोको यगपत कहनेवाला शब्द मारम नहीं है । अतः वस्तु यथार्थतः वचनातीत अवतन्य है। इस तरह मूल में तीन भंग है-- १ स्यादस्ति घट: स्यानास्ति घटः ।
३ स्मादवक्तव्या घटः अवमन्यके साथ स्यात् पद लगातका भी अर्थ है कि बस्तु युगपन् पूर्ण रूपमें यदि अवस्तब्ध है तो कमश: अपने अपूर्ण रूपमें वक्तव्य भी है और वह अस्ति नामित आदि रूपसे वचनोंका विषय भी होतो है। अत: यस्तु स्याद् अबक्तबा है। जब मूल भंग नीन हैं तब उनके दिसंयोगी भंग भी तीन होंग मथा नि. संयोगी भंग एक होगा। जिस तरह चतष्कोटिम सल और असतको मिलाकर प्रश्न होता है कि क्या सन होकर भी वस्तु असत् है ?" उमी तरह ये भी प्रश्न हो सकते हैं कि-६ क्या सत् होकर भी वस्तु अवकाव्य है ? २ क्या असत् होकर भी वस्तु अबक्तव्य है? ३ क्या सत्असत् होकर भी वरतु अववतव्य है ? इन तीनों प्रश्नोंका समाधान संयोगज चार भंगोंमें है। अर्थात - (४) अस्ति नास्ति उभय का वस्तु है-स्वचतुष्टय अर्थात् स्वद्रब्य-क्षेत्र-काल-भाव और परचतुष्टय
पर क्रमशः दष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहने पर। (५) अस्ति अवक्तव्य बस्तु है-प्रथम समयमें स्वचतुष्टय और द्वितीय समयमें युगपत् स्वपरचतुष्टय
पर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहने पर। (६) नास्ति अवक्तन्य वस्तु है-प्रथम समयमें पचतुष्टय और द्वितीय समयमे युगपत् स्वर
चतुष्टयको क्रमशः दृष्टि बनेपर और दोनोंकी सामहिक विवक्षा रहने पर । (७) अस्ति नास्ति अवस्तथ्य बस्तु है-प्रथम समयम स्वचतुष्टय. द्वितीय ममयम परचतुष्टम तथा
तृतीय समयमें युगपत् स्व-पर चतुष्टय पर कमशः दृष्टि रखने पर और तीनोंकी सामूहिक विवक्षा रहने पर।