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सप्तभंगी
जब अस्ति और नारित की तरह अवक्तव्य भी वस्तुका धर्म है तब जैसे अस्ति और नास्तिको मिलाकर याद है वैसे यि से विधीस्त नहटौर अस्तिनास्तिको मिलाकर
पाँचवें छठवें और सातवें भगकी सृष्टि हो जाती है।
इस तरह गणित के सिद्धान्त के अनुसार तीन मूल वस्तुयोंके अधिक से अधिक अपुनराजन सात ही भंग हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि वस्तुके प्रत्येक धर्मको लेकर सात प्रकारकी जिज्ञासा हो सकती है, सात प्रकारके प्रश्नही सकते हैं अतः उनके उत्तर भी सात प्रकारके ही होते हैं ।
दर्शन दिग्दर्शनमें श्री राहुलजी ने पांचवें टवें और सातवें भंगको जिस भ्रष्ट तरीकेसे तोड़ामोड़ा है वह उनकी अपनी निधी कल्पना और अतिसाहस है। जब वे दर्शनोंको व्यापक नई और वैज्ञानिक दृष्टिसे देखना चाहते हैं तो किसी भी दर्शनकी समीक्षा उसके स्वरूपको ठीक समझ कर ही करनी चाहिए।
अवक्तव्य नामक धर्मको, जो कि सत्के साथ स्वतन्त्रभाव से द्विसंयोगी हुआ है, तोटकर अ वक्तव्य करके संजय 'नहीं' के साथ मेल बैस देते हैं और 'संजय' के घोर अनिश्चयवादको ही अनेकान्तवाद कह देते हैं ! किमाश्वर्यमतः परम्
श्री सम्पूर्णानवजी 'जैनधर्म' पुस्तककी प्रस्तावना ( पृ० ३) में अनेकान्तवादको ग्राह्यता स्वीकार करके भी सप्तभागी न्यायको बालको खाल निकालने के समान आवश्यकतासे अधिक नारीकीमें जाना समझते हैं। पर सप्तभंगीको आजसे हाई हजार वर्ष पहिलेके वातावरणमें देखनेपर वे स्वयं उसे समयकी मांग कहे बिना नहीं रह सकते। अाई हजार वर्ष पहिले आबाल गोपाळ प्रत्येक प्रश्नको सहज तरीकेसे 'सत् असत् उभय और अनुभव' हम चार कोटियोंमें गूंथ कर ही उपस्थित करते थे और उस समय के भारतीय आचार्य उत्तर भी चतुष्कोटिका ही हो या ना में देते थे, तब तीर्थंकर महावीरले मूल तीन मंगोंके गणित नियमानुसार अधिकसे अधिक मात प्रश्न बनाकर उनका समाधान सप्तभंगी द्वारा fear जो निश्चितरूपसे वस्तुको सीमा के भीतर ही रहा है। सात भंग बनाने का उद्देश्य यह है किदस्तु अधिक से अधिक सात ही प्रश्न हो सकते है । अवक्तव्य वस्तुका मूलरूप है. सत् और असत् ये दो धर्म इस तरह मूल धर्म सीन हैं। इनके अधिक से अधिक मिला जुड़ाकर सात ही प्रश्न हो सकते हैं । इन सब संभव प्रश्नोंका समाधान करना ही सप्तभंगी न्यायका प्रयोजन है। यह तो जैसे को तैसा उत्तर है अर्थात् यदि तुम कल्पना करके सात प्रश्नों की संभावना करते हो तो उसी तरह उत्तर भी वास्तविक तीन धर्मोको मिलाकर सात हो सकते हैं। इतना ध्यान में रहना चाहिए कि एक एक धर्मको लेकर ऐसे अनन्त सात मंग वस्तु बन सकते हैं। अनेकान्तवादने जगत् के वास्तविक अनेक सत्का अपलाप नहीं किया और न वह केवल कल्पनाके क्षेत्र में विचरा है ।
मेरा उन दार्शनिकोंसे निवेदन है कि भारतीय परम्परा में जो सत्यकी धारा है उसे 'दर्शन ग्रन्थ' लिखते समय भी कायम रखें और समीक्षाका स्तम्भ तो बहुत सावधानी और उत्तरदायित्वके साथ लिखनेकी कृपा करें जिससे दर्शन केवल बिवाद और भ्रान्त परम्पराओंका अजायबघर न बने, वह जीवन में संबाद लावे और दर्शनप्रणेताओंको समुचित न्याय दे सके ।
इस तरह जैनदर्शनने दर्शन की काल्पनिक भूमिका से निकलकर वस्तु सीमापर खड़े होकर जगत् में वस्तुस्थितिके आधारसे मंत्राद समीकरण और यथार्थ तत्वज्ञानको दृष्टि दो जिसकी उपासना से विश्व अपने वास्तविक रूपको समझकर निरर्थक विवाद से बचकर सच्चा संवादी बन सकता है।
१ जैनमन्यमिह बी के बालजीवन की एक घटनाका कर्णन आता है कि ' और विजय नामके दो साधुसंशय महावीर को देखते ही नष्ट हो गया था, इसलिए इनका नाम सन्मति रखा गया था सम्भव है यह संजय-विजय संजय कपुित्त हो हो और इसीके संशय या अनिश्चयका नाश महावीर के सप्तभंगीन्याबले हुआ हो। यहाँ केलट् ठिपुत्त विशेष भ्रष्ट होकर विजय नामका दूसरा । सा वन गया है।