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छठवाँ अध्याय
योगका स्वरूप
कायवाङ्मनःकर्म योगः ॥ १॥ मन, वचन और कायकी क्रियाको योग कहते हैं। अर्थात् मन, वचन और कायकी वर्गणाओं को आलंबन लेकर आस्माके प्रदेशोंमें जो हलन चलनरूप क्रिया होती हैं उसीका नाम योगगनगिके सीमवादी-
कानयजयो अरमानीयोग । वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होनेपर तथा औदारिक,औदारिकमिश्र, क्रियिक, क्रियिकर्मिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण शरीर रूपसे परिणत वर्गणाओंमसे किसी शरीरवर्गणाके निमित्त से आत्माके प्रदेशों में जो क्रिया होती है वह काययोग है। शरीर नामकर्म के उदयसे होनेवाली वचनवर्गःणाके होनेपर, वीर्यान्तरायका क्षयोपशम होनेपर, मतिज्ञानावरणका श्योपशम होनेपर, अक्षरादिश्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर और अन्तरंगमें वचनलब्धिकी समीपता होनेपर वचनरूप परिणामके अभिमुख आत्माके प्रदेशामें जो क्रिया होती है उसको वचनयोग कहते हैं । वचनांग सत्य, असत्य, उभय और अनुभयके भेदसे घार प्रकारका है। श्रन्नरंगमें योर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप मनोलब्धिके होनेपर और बहिरंगमें मनोवर्गणाके उदय होनेपर मनरूप परिणामके अभिमुख श्रात्माके प्रदेशों में जो क्रिया होती है वह मनोयोग है।
____ सयोगकवलीमें वीर्यान्तराय आदिके भय होनेपर मनोवर्गणा आदि तीन प्रकारकी वर्गणाओंके निमित्तसे ही योग होता है। सयोगकैवलीका योग अचिन्तनीय है जैसा कि स्वामी समन्तभद्रने बृहनस्वयंभू स्तोत्रमें कहा है-हे भगवन ! आपके मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक नहीं होती हैं और न विना विचारे ही होती हैं, आपकी चेष्टाएँ अचिन्त्य हैं।
आस्रवका वर्णन
स आस्रवः ॥ २॥ ऊपर कह गये योगका नाम ही आम्रव है । कर्मके आने के कारणोंको आसत्र कहते हैं। मन, वचन और कायकी क्रिया के द्वारा श्रात्मामें कर्म आते हूँ अतः योगको श्रास्त्र कहते हैं। दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपरणात्मक भी योग होता है लेकिन वह अनास्त्र रूप है अर्थात् दण्डादियोग कर्मों के आनेका कारण नहीं होता है। जिस प्रकार गोला वस्त्र धूलि को चारों ओरसे प्रण करता है अथवा तप्त लोईका गरम गोला चारों ओरसे जलको महण करता है उसी प्रकार कषायसे सन्तम जीव योगके निमित्तसे आये हुये कर्मों को सम्पूर्ण प्रदेशोंक द्वारा ग्रहण करता है।
शुभः पुण्यस्थाशुभः पापस्य ॥ ३ ॥ शुभ योग पुण्य कर्मके आसवका और अशुभ योग पापकर्म के आवका कारण होता है । जो आत्माको पवित्र करे वह पुण्य है, जो आत्माको कल्याणकी ओर न जाने