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पञ्चम अध्याय मार्गदर्शकछवासोंचाई भोजविसलगरसभा से एक लय होता है। साड़े अड़तीस लयोंकी
एक माली होती है। वो नलियोंका एक मुहूर्त होता हैं और श्रावलीसे एक समय अधिक तथा मुहूर्वसे एक समय कम अन्तमुहूर्तका काल है । इसी तरह माह, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, पल्योपम आदिकी गणना होती है।
गुणाका लक्षण
द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः ॥ ११ ॥ जो द्रव्यके आश्रित हो और स्वयं निर्गुण हो उनको गुण कहते हैं।
निर्गुण विशेषण से द्वधगुक, त्र्यणुक आदि स्कन्धोंकी निवृत्ति हो जाती है। यदि 'ट्याश्रया गुणाः सा ही लक्षण कहते तो द्वथणुक आदि भी गुण हो जाते क्योंकि ये अपने कारणभूत परमाणुव्यके आश्रित हैं। लेकिन जब यह कह दिया गया कि जो गुणको निर्गुण भी होना चाहिये तो वणुक आदि गुण नहीं हो सकते क्योंकि निर्गुण नहीं हैं किन्तु गुण सहित है। ___ यद्यपि घट संस्थान आदि पर्यायें भी द्रव्याश्रित और निर्गुण है लेकिन वे गुण नहीं हो सकती क्योंकि 'द्रव्याश्रया'का तात्पर्य यह है कि गुणको सदा द्रव्यके आश्रित रहना चाहिये। और एयायें कभी कभी साथ रहती है. वे नष्ट और उत्पन्न होती रहती है अतः पर्यायोंको गुण नहीं कह सकते। नैयायिक गुणोको द्रव्यसे पृथक् मानते हैं लेकिन उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है। यद्यपि संज्ञा, लक्षण आदिके भेदसे द्रव्य और गुणमें कथंचित् भेद है लेकिन द्रव्यात्मक और द्रव्यके परिणाम या पर्याय होनेके कारण गुण द्रव्यसे अभिन्न है।
पर्यायका वर्णन
तद्भावः परिणामः ॥ ४२ ॥ धर्मादि द्रव्यों के अपने अपने स्वरूपसे परिणमन करनेको पर्याय कहते हैं। धर्मादि द्रव्योंके स्वरूपको ही परिणाम कहते हैं। परिणामके दो भेद है-सादि और अनादि । सामान्यसे धर्मादि द्रव्योंका गत्युपमइ आदि अनादि परिणाम है और वही परिणाम विशेषकी अपेक्षा सादि है । तात्पर्य यह कि गुण और पर्याय दोनों ही द्रव्योफे परिणाम है।
पांचवा अध्याय समाप्त