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________________ ४३२ तत्त्वार्धवृति-हिन्दी-सार [५३९-४० काल द्रव्यका वर्णन कालश्च ॥ ३१ ॥ काल भी द्रव्य है क्योंकि उसमें व्यका लक्षण माया जाता है। द्रव्यका लक्षण 'उत्पादव्ययश्रीव्ययुक्त और 'गुणपर्यययद् द्रव्यम' बतलाया है। काल में दोनों प्रकारका लक्षण पाया जाता है। स्वरूपकी अपेक्षा नित्य रहने के कारण क ल में स्वप्रत्यय धौम्य है। उत्पाद और व्यय स्वप्रत्यय और परप्रत्यय दोनों प्रकारसे होते हैं। अगुरुलघु गुणोंकी हानि और घृद्धिको अपेक्षा काल में स्वप्रयय उत्पाद और व्यय होता रहता है। काल द्रव्योंक परिवतन में कारण होता है. अतः परप्रत्यय उत्पाद और व्यय भी काल में होते हैं। काल में साधारण और असाधारण दोनों प्रकारके गुण रहते हैं। अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि कालफे साधारण गुण है। द्रव्यों के परिवर्तन में हेतु होना कालका असाधारण गुण है। इसीप्रकार कालमें पर्याएँ भी उत्पन्न और विनष्ट होती रहती है। अत: जीवादि की तरह काल भी द्रव्य है। प्रश्न--काल द्रव्यको प्रश्रा क्यों कहा । पहिले "अजीवकाया धर्माधर्माकाशकालपुद्गला"ऐसा सूत्र बनाना चाहिये था। ऐसा करनेसे काल द्रव्यका पृथक वर्णन न करना पड़ता। उत्तर-यदि "अजीवकाया" इत्यादि सूत्र में काल द्रव्यको भी सम्मिलित कर देते तो जमार्गकियोको भाकाल माविकीयाजाती महाकन कालद्रव्य मुख्य और उपचार दोनों रूपसे काय नहीं है। पहिले "निष्क्रियाणि च" इस सूत्रमें धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यको निष्क्रिय बतलाया है। इनके अतिरिक्त द्रव्य सक्रिय हैं। अतः पूर्व सूत्र में कालका वर्णन होनेसे काल भी सक्रिय द्रव्य हो जाता और "आ आकाशादेकद्रव्यम्' इसके अनुसार काल भी एक द्रव्य हो जायगा । लेकिन काल न तो सक्रिय है और न एक दूधप। इन कारणोंसे काल द्रव्यका वर्णन पृथक किया गया है। कालद्रव्य अनेक है इसका तात्पर्य यह है कि लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेश पर एक एक कालाणु रत्नराशि के समान पृथक पृथक् स्थित है । लोकाकाशके प्रदेश असंख्यात होनेसे काल द्रव्य भी असंख्यात है । कालाणु अमूर्न और निष्क्रिय हैं तथा सम्पूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त है। व्यवहारकाल का प्रमाण सोऽनन्तसमयः ॥४॥ व्यवहारकालका प्रमाण अनन्त समय है। यद्यपि वर्तमान कालका प्रमाण एक समय ही है किन्तु भूत और भविष्यत् कालकी अपेक्षासे कालको अनन्तसमयवाला कहा गया है। अथवा यह सूत्र व्यवहार कालके प्रमाणको न घतलाकर मुख्यकालके प्रमाणको ही बसलाता है। एक भी कालागु अनन्त पर्यायोंकी वर्तनामें हेतु होने के कारण उपचारसे अनन्त समयवाला कहा जाता है। समय कालके उस छोटेसे छोटे अंशको कहते हैं जिसका बुद्धि के द्वारा विभाग न हो सके। मन्दगति से चलनेवाले पुद्गल परमाणुको आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेश तक चलने में जितना काल लगे उतने कालको समय कहते है। ___यहाँ समय शब्दसे आवली, उच्छ्वास आदिका भी प्रहण करना चाहिये । असंख्यात समयोंकी एक आवली होती है। संख्यात प्रावलियोंका एक उच्छ्वास होता है। सात
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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