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________________ मार्गदर्शक : आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज छठवाँ अध्याय ६॥४-५॥ ४३५ दे वह पाप है । सद्र्य, शुभायु, शुभनाम और शुभ गोत्र पुण्य हैं. असातावेदनीय अशुभ आयु अशुभ नाम और अशुभ गोत्र पाप हैं। जीवरक्षा, अचौर्य, ब्रह्मचर्यादि शुभ कार्ययोग है । सत्य, हित, मित, प्रियभाषणादि शुभ वचनयोग है । अर्हन्त आदिकी भक्ति, तपमें रुचि, शास्त्री विनय आदि शुभ मनोयोग है। हिंसा, अदत्तादान, मैथुन आदि अशुभ काययोग हैं। असत्य, अप्रिय, अहिंत, कर्कश भाषण आदि अशुभ वचनयोग है । चिन्तन, ईर्ष्या, असूया आदि अशुभ मनोयोग हैं। शुभ परिणामों में उत्पन्न योगको शुभ योग और अशुभ परिणामोंसे उत्पन्न योगको अशुभ योग कहते हैं। ऐसा नहीं है कि जिसका हेतु शुभ कर्म हो वह शुभ योग और जिसका हेतु अशुभ कर्म हो वह अशुभ योग कहा जाय । यदि ऐसा माना जाय तो केवली के भी शुभाशुभ कर्मका बन्धं होना चाहिये क्योंकि केवली के अशुभ कर्म (असातावेदनीय) का उदय होनेसे अशुभ योग हो जायगा और अशुभ योग होने अशुभ कर्मका बन्ध होना चाहिये। लेकिन केवली के अशुभ कर्मका बन्ध नहीं होता है । प्रश्न – शुभ योग भी ज्ञानावरणादि कर्मके बन्धका कारण होता है। जैसे किसीने एक उपवास करने वाले व्यक्तिसे कहा कि तुम पढ़ो नहीं, पढ़ना बन्द कर दो! तो यद्यपि कहने वालेने हितकी बात कही फिर भी उसके ज्ञानावरणादिका बन्ध होता है । इसलिये एक अशुभ योग ही मानना ठीक है शुभ योग है ही नहीं । उत्तर - उक्त प्रकार से कहनेवालेको अशुभ कर्मका आस्त्रव नहीं होता है क्योंकि उसके परिणाम त्रिशुद्ध हैं । उसके कहने का अभिप्राय यह था कि यदि यह उपवास करनेवाला व्यक्ति इस समय विश्राम कर ले तो भविष्य में अधिक तप कर सकता है | अतः उसके परिणाम शुभ होने से अशुभ कर्मका आसव नहीं होता है । मांस का भी है कि स्व और परमें उत्पन्न होनेवाले सुख या दुःख यदि विशुद्धिपूर्वक हैं तो पुण्यास्त्रव होगा यदि संक्लेश पूर्वक हैं तो पापास्स्रव होगा। यही व्यवस्था पुण्य-पापास्स्रषकी सयुक्तिया है । सकषायाकषाययोः साम्परायिकेय थियोः ॥ ४ ॥ जो आत्माको कसे अर्थात् दुःख दे बहु कषाय । अथवा कपाय चेंपको कहते हैं जैसे बद्देदा या ऑक्लेका कसैली पत्रके कसैले रंगसे रंग देता है । कषाय सहित जीवों के साम्परायिक और कषाय रहित जीवोंके ईर्यापथ आस्रव होता है। संसार कारणभूत व को साम्परायिक श्रनव कहते हैं ।। स्थिति और अनुभाग रहित कर्मों के आस्त्रयको ईर्याथ आस्रव कहते हैं । कषायसहित जीवोंके अर्थात मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से दशमें गुणस्थान तक साम्परायिक आस्त्रव होता है । और ग्यारहवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक ईर्याथ आसव होता है। ईगोपथ आस्रव संसारका कारण नहीं होता है क्योंकि उपशान्त पाय आदि गुणस्थानों में कषायका अभाव होनेसे योगके द्वारा आये हुये कर्मों का स्थिति और अनुभाग बन्ध नहीं होता है और आये हुये कर्मों की सूखी दीवाल पर गिरे हुये पत्थर की तरह तुरन्त निवृत्ति हो जाती है । और कषायसहित जीवों के योगके द्वारा आये हुए कमा पायके निमित्त से स्थिति और अनुभागबन्ध भी होता है अतः वह संसारका कारण होता है। चौदहवें गुणस्थान में आस्रव नहीं होता है । I साम्परायिक आवके भेद इन्द्रियकषायावत क्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्या: पूर्वस्य भेदाः ||ी पाँच इन्द्रिय, धार कषाय, पाँच अत्रत और पचीस क्रियाएँ इस प्रकार साम्परायिक
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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