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________________ तत्रार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ६६ के उनतालीस भेद हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियोंके द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के द्वारा और हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह इन पाँच अतोंके द्वारा साम्परायिक आस्रव होता है । सम्यक्त्व आदि पीस क्रियाओंके द्वारा भी साम्परायिक आसव होता है। पचीस क्रियाओं का स्वरूप निम्न प्रकार है— मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १ सम्यक्त्यको बढ़ाने वाली क्रियाको सम्यक्त्व क्रिया कहते है जैसे देवपूजन, गुरूपारित, शास्त्र प्रवचन आदि । २ मिध्यात्वको बढ़ानेवाली किया मिध्यात्य क्रिया हैं जैसे कुदेवपूजन आदि । ३ शरीरादिके द्वारा गमनागमनादिमें प्रवृत्त होना प्रयोग क्रिया है । ४ संयमीका अविरत के सम्मुख होना अथवा प्रयत्नपूर्वक उपकरणादिका ग्रहण करना समादान किया है। ५ पथ कर्मकी कारणभूत क्रियाको ईर्यापथ क्रिया कहते हैं । ६ दुष्टतापूर्वक फायसे उद्यम करना कायिकी क्रिया है। हिंसाके उपकरण तलवार आदिका ग्रहण करना अधिकरण किया है । ८ जीवको दुःख उत्पन्न करने वाली क्रियाको पारितापिकी क्रिया कहते हैं । ९ आयु, इन्द्रिय आदि दश प्राणका वियोग करना प्राणातिपातिकी क्रिया है । ११ रागके कारण रमणीयरूप देखनेकी इच्छा का होना दर्शन किया है। १२ कामके वशीभूत होकर सुन्दर कामिनीके स्पर्शनको इच्छाका होना स्पर्शन किया है। १३ नये नये हिंसादिके कारणों का जुटाना प्रात्ययिकी क्रिया है । २४ स्त्री, पुरुष और पशुओंके बैठने आदिके स्थान में मल, मूत्र आदि करना समन्तानुपात क्रिया है । १५ विना देखी और बिना शोधी हुई भूमि पर उठना, आदि अनाभोग क्रिया है । १६ नौकर आदिके करने योग्य क्रियाको स्वयं करना स्वहस्त क्रिया है । १७ पापको उत्पन्न करनेवाली प्रवृत्ति में दूसरेको अनुमति देना निसर्ग क्रिया है । १८ दूसरों द्वारा किये गये गुप्त पापको प्रगट कर देना विदारण क्रिया है । १९ चारित्रमोहके उदय से जिनोक्त आवश्यकादि क्रियाओंके पालन करने में अर्थ होनेके कारण जिनांनासे विपरीत कथन करना अशा व्यापादन क्रिया है । २० प्रमाद अथवा अज्ञानके कारण शास्त्रोक्त क्रियाओंका आदर नहीं करना अनाकांक्षाक्रिया है । २१ प्राणियों के छेदन, भेदन आदि क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्त होना तथा अन्यको प्रवृत देखकर हर्षित होना प्रारम्भ किया है। २२ परिग्रह की रक्षाका प्रयत्न करना पारिग्रहिकी क्रिया है । २३ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपमें तथा इनके धारी पुरुषोंमें कपट रूप प्रवृत्ति करना माया क्रिया है । २४ मिध्यामठोक क्रियाओंके पालन करनेवाले की प्रशंसा करना मिथ्यादर्शन क्रिया है । २५ चारित्र मोहके उदयसे त्यागरूप प्रवृत्ति नहीं होना अप्रत्याख्यान क्रिया है । खठना ४३६ इन्द्रिय आदि कारण हैं और क्रियाएँ कार्य हैं अवः इन्द्रियोंसे क्रियाओं का भेद स्पष्ट है । आस्रवकी विशेषता में कारण तीव्रमन्दाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥ ६ ॥ तीभाव, मन्दभाव ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्यकी विशेषतासे ear विशेषता होती है । ATM और अभ्यन्तर कारणोंसे जो तोत्र भाव है । कषायकी मन्दता होनेसे जो 'इस प्राणीको मारूँगा' इस प्रकार जानकर उत्कट क्रोधादिरूप परिणाम होते हैं वह सरल परिणाम होते हैं वह मन्द भाव है । प्रवृत्त होना ज्ञातभाष है। प्रमाद अथवा
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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