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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
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छठवाँ अध्याय
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अज्ञानसे किसी प्राणीको मारने आदि में प्रवृत होना अज्ञातभाव है । आधारको अधिकरण कहते हैं। और द्रव्यकी स्वशक्ति विशेषको वीर्य कहते हैं ।
क्रोध, राग, द्वेष, सज्जन और दुर्जन जनका संयोग और देशकाल आदि बाह्य कारणों के यशसे किसी आत्मामें इन्द्रिय, कपाय, मन और क्रियाओं की प्रवृत्ति में तीव्र भाव और किसी मन्द भाव होते हैं । और परिणामके अनुसार ही तीव्र या मन्द आस्रव होता हैं। जानकर इन्द्रिय, अम्रत श्रादिमें प्रवृत्ति करनेपर अल्प आम्रव होता है | अधिकरण की विशेषतासे भी में विशेषता होती है जैसे वेश्या के साथ श्रालिङ्गन करनेपर अल्प और राजपत्नी या भिक्षुणीसे आलिङ्गन करनेपर महान् स्त्रव होता है। बीर्यकी विशेषता से भी में विशेषता होती है जैसे वज्रवृषभनाराच संहननवाले पुरुषको पाप कर्म में प्रवृत्त होनेपर महान् आस्त्रव होगा और होन संहननवाले पुरुषके अल्प आस्रव होगा । इसी प्रकार देश काल आदिके भेदसे भी आस्रव में भेद होता है जैसे घर में ब्रह्मचर्यं भंग करनेपर अल्प और देवालय में ब्रह्मचयं भंग करनेपर अधिक आस्रव होगा। उससे भी अधिक आस्रव तीर्थयात्राको जाते समय मार्ग में ब्रह्मचर्य भंग करनेपर, उससे भी अधिक तीर्थस्थान पर ब्रह्मचर्य भङ्ग करनेपर तीव्र आस्रव होता है। इसी तरह देववन्दना आदि के कालमं कुप्रवृत्ति करनेपर महान् घाव होता है। इसी प्रकार पुस्तकादि द्रव्यकी अपेक्षा भी आस्रव में विशेपता होती है । इस प्रकार उक्त कारणोंक भेदसे आसव में भेद समझना चाहिये । अधिकरणका स्वरूपअधिकरणं जीवाजीवाः ॥ ७ ॥
जीव और अजीव ये दो आस्रव के अधिकरण या आधार है। यद्यपि सम्पूर्ण शुभ और अशुभ व जीवके ही होता है लेकिन आस्रवका निमित्त जीव और अजीव दोनों होते हैं अतः दोनोंको आस्रवका अधिकरण कहा गया है। जीव और अजीव दो द्रव्य होने से सूत्र में "जीवाजीव" इस प्रकार द्विवचन होना चाहिये था लेकिन जीव और अजीवको पर्यायोंको भी आवका अधिकरण होनेसे पर्यायकी अपेक्षा सूत्र में बहुवचनका प्रयोग किया गया है ।
जीवाधिकरण के भेद-
आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमत्तकपाय विशेषैस्त्रिस्त्रिविधतुःश्वैकशः ॥ = संरंभ, समारंभ ओर आरम्भ, मन, वचन और काय; कृत, कारित और अनुमोदना, क्रोध, मान, माया और लोभ इनके परस्पर में गुणा करनेपर जीवाधिकरण के एक सौ आठ भेद होते हैं। किसी कार्यको करनेका संकल्प करना संरंभ है। कार्यकी सामग्रीका एकत्रित करनेका नाम समारंभ है । और कार्यको प्रारंभ कर देना आरंभ है। स्वयं करना कृत, दूसरे से कराना कारित और किसी कार्यको करनेवाले की प्रशंसा करना अनुमत या अनुमोदना है। जीवाधिकरणके एक सौ आठ भेद इस प्रकार होते हैं ।
क्रोधकृतका संरंभ, मानकृतकायसंरंभ, मायाकृतकाय संरंभ, लोभकृतकायसंरंभ, कारितका संरंभ, मानका रितकायसंरंभ, मायाकारितकायसंरंभ, लोभकारितका संरंभ, क्रोधानुमतकायसंरंभ, मानानुमतकायसंरंभ, सायानुमतकाय संरंभ और लोभानुमतकाय संरंभ इस प्रकार कायसंरंभ के बारह भेद हैं । वचन संरंभ और मनः संरंभ के भी इसी प्रकार बारह बारह भेद समझना चाहिये | इस प्रकार संरंभके कुल छत्तीस भेद हुये । इसी प्रकार