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________________ तत्त्रार्थयन्ति हिन्दी-सार [६॥९-१० समारंभ और प्रारम्भके भी छत्तीस छत्तीस भेद होते हैं । अतः सब मिलाकर जीवाधिकरणफ एक सौ आठ भेद होते हैं । सूत्रमें 'च' शब्दमे यह सूचित होता है कि कपार्योके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान आदि प्रभेदोंके द्वार। जीवाधिकरणके और भी अन्तर्भेद होते हैं। अजीयाधिकरणके भेदनिवर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वि त्रिभेदाः परम् ॥ ६॥ दो निर्वतना, तीन निक्षेप, दो सर्वोपरि तीनभर्यिकाभिविधिसीयाधिकरणहाराज ग्यारह भेद होते हैं। रचना करनेका नाम निर्वतना है। निर्षर्तनाके दो भेद है-मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना। मूलगुण निवर्तनाके पाँच भेद है-शरीर, बचन, मन, प्राण और अपान | इनकी रचना करना मूलगुण-निर्धतेना है। काष्ठ, पाषाण, आदिसे चित्र श्रादि बनाना, जीवके खिलौने बनाना, लिखना आदि उत्तरगुण निर्वर्तना है। किसी वस्तु के. रखमको निक्षेप कहते हैं। इसके चार भेद है-अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण, दाप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और अनाभोगनिक्षेधिकरण । विना दो किमी वस्तुको रख देना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेषाधिकरण है । ठीक तरहसे न शोधी हुई भूमिमें किसी वस्तुको रखना टुःप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण है। शीघ्रतापूर्वक किसी वस्तुको रवग सहसानिक्षेपाधिकरण है। किसी वस्तुको विना देख अयोग्य स्थान में रखना अनाभोगनिक्षेपाधिकरण है। मिलानेका नाम संयोग है । संयोगाधिकरणके दो भेद हैं-अन्नपानसंयो. गाधिकरण और उपकरणसंयोगाधिकरण। किसी अन्नपानको दूसरे अन्नपानमें मिलाना अन्नपानसंयोगाधिकरण है। और ऋमण्डलु आदि उपकरणोंको दूसरे उपकरणों के साथ मिलाना उपकरणसंग्रोगाधिकरण है। प्रवृत्ति करनेको निसर्ग कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-कार्यानसर्गाधिकरण, वाकनिसर्गाधिकरण और मनोनिसर्गाधिकरण । काय, बचन और मनसे प्रवृत्ति करनेको क्रमसे कायादिनिसर्गाधिकरण समझना चाहिये। सूत्रमें 'पर' शब्द अजीवाधिकरणका बाचक है । यदि पर शन्द न होता तो ये भेद भी जीवाधिकरणके ही हो जाते । उक्त ग्यारह प्रकारके अजीबाधिकरणके निमिस से प्रात्मामें कर्मोंका आत्रच होता है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के प्राचवतत्प्रदोषनिहवमात्सर्यान्तरायासादनीपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥१०॥ ज्ञान और दर्शन विषयक प्रदोप, निलय, मात्मर्य, अन्तराय, प्रासादन और उपघात ये झानाधरण और दर्शनावरण के अास्रय है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन-ज्ञानयुक्त पुरुषकी प्रशंसा सुनकर स्वयं प्रशंसा न करना और मनमें दुष्ट भाओंका लाना प्रदोष है। किसी बानको जानने पर भी मैं उस बात को नहीं जानता हूँ पुस्तक श्रादिके होनेपर भी मेरे पास पुस्तक आदि नहीं है। इस प्रकार ज्ञानको छिपाना निहब है। योग्य झान योग्य पात्रको भी नहीं देना मात्सर्य है। किसीके ज्ञानमें विघ्न डालना अन्तराय है। दूसरे के द्वारा प्रकाशित ज्ञानकी काय और वचनसे विनय, गुणकीर्तन श्रादि नहीं करना आसाइन है। सम्यम्झानको भी मिथ्याज्ञान कहना उपघात है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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