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________________ १४११] छठवाँ अध्याय ४३५ प्रासादनमें ज्ञानकी विनय आदि नहीं की जाती है, लेकिन उपघातमें ज्ञानको नाश करनेका ही अभिप्राय रहता है अतः इनमें भेद स्पष्ट है। प्रश्न-पहिले बान और दर्शनका प्रकरण नहीं होनेसे इस सूत्रमें आए हुए तत्' शब्दके द्वारा ज्ञान और दर्शचका ग्रहण कैसे किया गया ? उत्तर -- यद्यपि पहिले ज्ञान और दर्शनका प्रकरण नहीं है फिर भी सूत्र में ज्ञानदर्शनाचरणयोः' शब्दका प्रयोग होने से 'नत् शब्दके द्वारा शान और दर्शनका ग्रहण किया गया है। अथवा ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रव कौन हैं ऐसे किसीक प्रश्नके उत्तर में यह सूत्र बनाया गया अनः तत् शब्दके द्वारा ज्ञान और दर्शनका ग्रहण किया गया है। ____ एक कारणके द्वारा अनेक कार्य भी होते हैं अतः ज्ञानके विषयमें किये गये प्रदोष आदि दर्शनावरणके भी कारण होते हैं। अथवा ज्ञानविषयक प्रदोष आदि ज्ञानावरणक और दर्शनविण्यक प्रदोष आदि दर्शनावरण के कारण होते हैं। प्राचार्य और उपाध्याय के साथ शत्रुता रखना, अकालमें अध्ययन करना, अरुचिपूर्वक पढ़ना, पढ़नेमें आलस करना, व्याख्यान को अनादरपूर्वक सुनना, जहाँ प्रथमानुयोग बाँचना चाहिये वहीं अन्य कोई अनुयोग बाँचना, तीर्थोपरोध, बहुश्रुत के सामने गर्व करना, मिथ्योपदेश. बहुश्रुतका अपमान, स्वपक्षका त्याग, परपक्षका ग्रहण, ख्याति-पृजा आदिकी इन्छासे असम्बद्ध प्रलाप, सूत्रके विरुद्ध व्याख्यान, ऋपटसे ज्ञानका ग्रहण करना, शाखा बेवना, और प्राणातिपात आदि ज्ञानावरण के आस्रव हैं। देव, गुरु आदिके दर्शन में मात्सर्य करना, दर्शन में अन्तराय करना. किसीकी चाक्षुको उखाड़ देगाझीयाभिमतिकान्यासुनिभिसामरकर्मबाडासमेत्रोंका अहङ्कार, दीर्घनिद्रा, अतिनिद्रा, आलस्य, नास्तिकता, सम्यग्दृष्टियों को दोष देना, कुशास्त्रों की प्रशंसा करना, मुनियोंसे जुगुप्सा आदि करना और प्राणातिपात आदि दर्शनावरण के आसब हैं । असातावेदनीयके पासवदुःखशोफतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्भयरोभयस्थान्य सद्धेद्यस्य ।। ११ ।। स्व, पर तथा दोनों में किए जानेवाले दुःख, शोक, ताप, याक्रन्दन, वध और परिदेवन आसातारेदनीयके आस्रव हैं। पोड़ा या वेदनारूप परिणामको दुःश्य कहते हैं। उपकार करनेवाली चेतन या अचेतन वस्तुके नष्ट हो जानेसे विकलता होना शोक है। निन्दासे, मानमगसे या कर्कश वचन आदिसे होनेवाले पश्चात्तापको ताप कहते हैं । परितापके कारण अश्रुपातपूर्वक, बहुविलाप और अङ्ग विकारसे सहित स्पष्ट रोना आक्रन्दन है। आयु, इन्द्रिय श्रादि दश प्रकारके प्राणोंका वियोग करना यध है। स्व और परोपकारकी इच्छासे संकेशपरिणामपूर्वक इस प्रकार रोना कि सुननेवाले के हृदय में दद्या उत्पन्न हो जाय परिदेवन है। यद्यपि शोक आदि दुःखसे पृथक् नहीं हैं, लेकिन दुःख सामान्य वाचक है अतः दुःखकी कुछ विशेष पर्याय बतलाने के लिये शोक प्रादिका पृथक ग्रहण किया है। प्रश्न-यदि आरम, पर और उभयस्थ दुःख, शोक आदि असाताबेदनीयके आसव हैं तो जैन साधुओं द्वारा केशोंका उखाड़ना, उपवास, आतपनयोग आदि स्वयं करना और दुसरोंको करनेका उपदेश देना श्रादि दुःखके कारणों को क्यों उचित घतलाया है ? उत्तर-अन्तर में क्रोधादिके आवेशपूर्वक जो दुःस्वादि होते है वे असातावेदनीयके
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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