SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 541
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४० तत्वार्थवृप्ति हिन्दी-सार [ ६४१२-१३ कारण हैं और क्रोध अभाव होनेसे दुःखादि असातावेदनीय के आस्रव के कारण नहीं होते हैं। जिस प्रकार कोई परम करुणामय वैद्य किसी मुनिके फोड़ेको शस्त्रसे चीरता है और इससे मुनिको दुःख भी होता है लेकिन कोधादिके बिना केवल बाह्य निमित्तमात्र से वैद्यको पाका बन्ध नहीं होता है, उसी प्रकार सांसारिक दुःखोंसे भयभीत और दुःखनिवृत्तिके लिये शास्त्रोत कर्म में प्रवृत्ति करनेवाले मुनिका केशोत्पादन आदि दुःखके कारणों के उपदेश देनेपर भी संक्लेश परिणाम न होनेमे पापका बन्ध नहीं होता है । कहा भी है- 'कि चिकित्सा के कारणों में दुःख या सुख नहीं होता है किन्तु चिकित्सा में प्रवृत्ति करनेवालेको दुःख या सुख होता है। इसी प्रकार मोक्षकं साधनों में दुःख या सुख नहीं होता है किन्तु मोक्षके उपाय में प्रवृत्ति करनेवालेको दुःखं या सुख होता है । असा साधन राखी खानहीं होता है किन्तु चिकित्सा करनेवाले बैद्यको सुख या दुःख होता है। यदि वैद्य कोधपूर्वक फोडेको चीरता है तो उसको पापा बन्ध होगा और यदि करुणापूर्वक पीडाको दूर करनेके लिये फोड़े को चीरता है तो पुण्यका बन्ध होगा । इसी प्रकार माह क्षय के साधन उपवास, केशलोंच आदि स्वयं दुःख या सुखरूप नहीं है किन्तु इनके करने वालेको दुःख या सुख होता है। यदि गुरु क्रोधादिपूर्वक उपवासादिको स्वयं करता है या दूसरोंसे कराना है तो उसको पापका बन्ध होगा और यदि शान्त परिणाम से दुःखविनाशके लिये उपवास आदिको करता है तो उसको पुण्यका बन्ध होगा । अशुभ प्रयोग, परनिन्दा, पिशुनता, अदया अोपाका छेदन-भेदन, ताड़न, बास, अली आदिले तर्जन करना, बचन दिसे किसीकी भर्त्सना करना, रोधन, बन्धन, दमन, आत्मप्रशंसा, क्लेशोत्पादन, बहुत परिग्रह, मन, वचन और कायकी कुटिलता, पाप कर्मोंसे आजीविका करना, अनर्थदण्ड, विष मिश्रण, वाण जाल पिचरा आदि का बनाना आदि भी असातावेदनीय कर्मके आसव हैं । सातावेदनीयके आस --- भूतत्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः शान्तिः शौचमिति सद्वेधस्य ॥ १२ ॥ भूतानुकम्पा, अत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि, शान्ति और शौच से सातावेदनीयके आन हैं । चारों गतियोंके प्राणियों में दयाका भाव होना भूतानुकम्पा है । अणुव्रत और महाव्रत के धारी श्रावक और मुनियोंपर दया रखना अत्यनुकम्पा है । परोपकार के लिये अपने द्रव्यका त्याग करना दान है। छह कायके जीवोंकी हिंसा न करना और पाँच इन्द्रिय और मनको वशमें रखना संयम है। रागसहित संयमका नाम सरागसंयम है। क्रोध, मान, और मायाकी निवृत्ति क्षान्ति है । सब प्रकारके लोभका त्याग कर देना शौच है । सूत्र में आदि शब्द से संयमासंयम, अकामनिर्जरा, बालतप आदि और इति शब्दसे अर्हत्पूजा, तपस्योकी वैयावृत्य आदिका ग्रहण किया गया है। I यद्यपि भूत ग्रहणसे तपस्वियों का भी ग्रहण हो जाता है लेकिन व्रतियोंमें अनुकम्पाकी प्रधानता बतलाने के लिये भूतोंसे व्रतियोंका ग्रहण पृथक किया गया है। दर्शन मोहनीय के आस्रव -- केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥ १३ ॥ केली, श्रुत, संघ, धर्म और देवोंकी निन्दा करना दर्शनमोहनीय के आकाष हैं ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy