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________________ ६।१४] छठवाँ अध्याय जिनके त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और पर्योको युगपत् जाननेवाला केवलज्ञान हो वे केवली हैं । सर्वज्ञके द्वारा कहे हुए और गणधर आदिके द्वारा रचे हुए शात्रोंका नाम श्रुत है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके धारी मुनि, आग्रिका, श्रारक और श्राविकाओं के समूहका नाम संघ है। सर्वज्ञ, बीसराग और हितोपदेशीके द्वारा कहा हुआ अहिंसा, सत्य आदि लक्षणवाला धर्म है। भवनवासी आदि पूर्वोक्त चार प्रकारके देव होते हैं। __केवलीका अवर्णवाद-केवली कवलाहारी होते हैं रोगी होते हैं उपसर्ग होते हैं । नग्न रहते हैं किन्तु वस्त्रादियुक्त दिखाई देते हैं इत्यादि प्रकारसे कंवलियोंकी निन्दा करना केवली का अवर्णवाद है। श्रुतका अवर्णवाद-मांसभक्षण, मद्यपान, माता-वहिन आदि के साथ मैथुन, जलका छानना पापजनक है.-इत्यादि बातें शास्त्रोक्त हैं, इस प्रकार शाहकी निन्दा करना श्रुतका अवर्णवाद है। संघका अयर्णवाद--मुनि आदि शूद्र है, अपवित्र हैं, स्नान नहीं करते है, बेदोंके अनुगामी नहीं हैं, कलि कालमें उत्पन्न हुए है, इस प्रकार संघकी निन्दा करना संघका अवर्णवाद है। धर्मका अवर्णवाद-केवली द्वारा कहे हुए धर्ममें कोई गुण नहीं है. इसके पालन करनेवाले लोग असुर होते हैं. इस प्रकार धर्मकी निन्दा करना धर्मका अवर्णवाद है । देवोंका अवर्णवाद- देव मद्यपायी और मांसभक्षी होते हैं इत्यादि मार्गदर्शक :-प्रजालोरोकी नवसरमा शोकाहाराणवाद है। चारित्र मोहनीयका आस्रव कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्वारित्रमोहम्य ॥ १४ ।। कषायके उदयसे होने वाले तीत्र परिणाम चारित्र मोहनीयके आस्रव हैं। चारित्र मोहनीयके दो भेद हैं-कपाय मोहनीय और अकषाय मोहनीय । स्त्रयं और दूसरेको कषाय उत्पन्न करना, व्रत और शीलयुक्त यतियोंके चरित्रमें दूषण लगाना, धर्मका नाश करना, धर्ममें अन्तराय करना, देशसंयतोंसे गुण और शीलका त्याग कराना, मात्सर्य आदि से रहित जनोंमें विभ्रम उत्पन्न करना, आत और रोद्र परिणामों के जनक लिङ्ग, व्रत आदिका धारण करना कपायमोहनीयके प्रास्रव है। ____ अकषाय मोहनीयके नौ भेद हैं--हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद और नपुंसकवेद । समीचीन धर्मके पालन करनेवालेका उपहास करना, दीन जनाको देखकर हँसना, कन्दपपूर्वक हँसना, बहुत प्रलाप करना,हास्यरूप स्वभाव होना आदि हास्यके आस्रव हैं। नाना प्रकारकी क्रीड़ा करना,विचित्र कीड़ा, देशादिके प्रति अनुत्सुकतापूर्वक प्रीनि करना, व्रत, शील आदिमें अरुचि होना रतिके आस्रव है। दूसरोंमें अरतिका पंदा करना और रतिका विनाश करना,पापशील जनोंका संसर्ग,पापक्रियाओंको प्रोत्साहन देना आदि अरतिके आनन्न हैं । अपने और दूसरोंमें शोक उत्पन्न करना, शोकयुक्त जनोंका अभिनन्दन करना आदि शोकके भाव है। स्व और परको भय उत्पन्न करना, निर्दयता, दूसरोंको त्रास देना आदि भवके आनध हैं । पुण्य क्रियाओंमें जुगुप्सा करना, दूसरोंकी निन्दा करना आदि जुगुप्साके आम्रब पराङ्गनागमन, स्त्रीके स्वरूपका धारण करना, असत्य वचन, परवचना, दूसरों के दोपोंके देखमा, और वृद्ध में राग होना आदि स्त्री वेदके आरव हैं। अल्पक्रोध, मायाका अभाव, वर्गका अभाव, स्त्रियों में अल्प आसक्ति, इर्ष्याका न होना, रागवस्तुओंमें अनादर. स्वदारसन्तोष, परदाराका त्याग आदि पुवेदके आसब हैं। प्रचुरकषाय, गुह्येन्द्रियका विनाश,
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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