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तत्वनिरूपण
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भी हानि ही हो सकती है। रूपान्तर प्रत्येकका होता रहता है। यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है । इस विज्ञानके अनुसार आत्मा एक स्वतंय गत् है तथा वुद्गपरमाणु स्वतंत्र सत् । अनादिसे यह आत्मा पुद्गलसे सम्बद्ध ही मिलता भाया है।
अमाविषद्ध माननेका कारण आज आत्मा स्थूल शरीर और सूक्ष्म कर्मशरीरसे बद्ध मिलता है । आज इसका ज्ञान और सुख यहां तक कि जीवन भी सरीराधीन है। शरीरमें विकार होनेसे तन्तुओं भीगना आते ही स्मृतिभ्रंश आदि देखे ही जाते हैं। अतः आज संसारी आत्मा शरीरबद्ध होकर ही अपनी गतिविधि करता है। यदि आत्मा शुद्धता तो शरीरसम्बन्धका कोई हेतु ही नहीं था । शरीरसम्बन्ध या पुनर्जन्मके कारण राय, द्वेष, मोह और कषायादिभाव शुद्ध आत्मा में ये विभावभाव हो ही नहीं सकते । चूंकि आज ये विभाव और उनका फल शरीरसम्बन्ध प्रत्यक्ष अनुभव आ रहा है अतः मानना होगा कि
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आजतक इनकी अशुद्ध परंपरा चली आई है।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
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भारतीय देशना यह एक ऐसी प्रश्न है जिसका उत्तर विधिमुखसे नहीं दिया जा सकता । ब्रामें अविद्याका कत्र उत्पन्न हुई? प्रकृति और पुरुषका संयोग कब हुआ ? आत्माले शरीरसम्बन्ध कब हुआ इनका एकमात्र उत्तर है-अनादिसे दूसरा प्रकार हूं कि यदि ये शुद्ध होते तो इनका संयोगहो ही नहीं सकता था। शुद्ध होनेके बाद कोई ऐसा हेतु नहीं रह जाता जो प्रकृतिसंसगं या अविद्योत्पत्ति होने दे। उसी तरह आम्मा यदि शुद्ध हो जाता है तो कोई कारण उसके अशुद्ध होनेका मा पुद्गलसंयोगका नही रह जाती । जब दो स्वतंत्र सत्ता द्रव्य है तब उनका संयोग चाहे जितना भी पुराना क्यों न हो नष्ट किया जा सकता है और नको पृथक् पृथक किया जा सकता है। उदाहरणार्थ खानिखे सर्वप्रथम निकाले गये सोनेमें कीट असंख्य
लगी होगी पर प्रयोग चूंकि वह पृथक् की जाती है, अतः यह निश्चय किया जाता है कि सुवर्ण अपने शुद्धरूप में इस प्रकार है तथा कीट प्रकार सारांश यह कि जीव और पुद्गलका बंद अनादि है। इस चूंकि वह दो क्योंका ग्रन्थ है अतः स्वरूपबोध हो जानेपर वह पृथक किया जा सकता है।
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आज जोवका ज्ञान, दर्शन, सुख, राग, द्वेष आदि सभी भाव बहुत कुछ इस जीवनपर्यायके अधीन हैं एक नव जीवन भर अपने ज्ञानका उपयोग विज्ञान या धर्मक अध्ययन में लगाता है। जवानीमें उसके मस्तिष्क में भौतिक उपादान अच्छे थे, प्रचुर मात्रा में थे, तो वे ज्ञानतन्तु चैतन्यको जगाए रखते थे । बुद्धमा आने पर उसका मस्तिष्क शिथिल पड़ जाता है। विचारशक्ति लुप्त होने लगती है। स्मरण नहीं रहता । वही व्यक्ति अपनी जधानीमें लिखे गये को में पढ़ता है तो उसे स्वयं आश्चर्य होता है वह विश्वास नहीं करता कि यह उहोगा। मन्तिष्कको यदि कोई भौतिक ग्रन्थि निगद जाती है तो मनुष्य पागल हो जाता है। दिमाग का यदि कोई पंच कस गया या होला होगया तो उन्माद, सन्देह आदि अनेक प्रकारकी धाराएं जीवन को ही बदल देती है। मुझे एक ऐसे योगीका प्रत्यक्ष अनुभव है जिसे शरीरको नमोंका विशिष्ट ज्ञान था। वह मस्तिष्क की एक किसी व्यास नसको दबाता था तो मनुष्यको हिंसा और क्रोधके भाव उत्पन्न हो जाते थे। दूसरे ही क्षण दूसरी केही अत्यन्त दया और करुणाके भाव होते थे और वह रोने लगता था एक तीसरी के द
मका ती उदय होता था और यह इच्छा होती थी कि चोरी कर लें। एक नसके दबाते ही परमात्मभक्तिकी ओर मनकी गति होने लगती थी। इन सब घटनाओंसे एक इस निश्चित परिणामपर तो पहुँच ही सकते हैं कि हमारी सारी शक्तियां जिनमें ज्ञान दर्शन तुम गग द्वेष नयाय आदि है. इस शरीर पर्यायके अधीन है। शरीरके नष्ट होते ही जीवन भरमं उपासित ज्ञान आदि पर्यायशक्तियां बहुत कुछ नष्ट हो जाती हैं। परलोक तक इन्हके कुछ सूक्ष्म संस्कार जाते हैं।
आज इस अशुद्ध आत्माकी दशा अर्धभौतिक जैसी हो रही है। इन्द्रियां यदि न हों तो ज्ञानकी शक्ति बनी रहने पर भी ज्ञान नहीं हो सकता । आत्मामें सुननेकी और देखनेकी शक्ति मौजूद है पर यदि आंखें फूट जाये और फाफट क्रिसी रह जायगी और बेलना सुनना नही हो सकेगा। विचारात