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________________ १८ तत्त्वार्यवृत्ति-प्रस्तावना विद्यमान है पर मन यदि ठीक नहीं है तो विचार नहीं किये जा सकते । पश्शायात यदि हो जाय तो अनेर देखने में कैसा ही मालूम होता है पर सब शून्य । निष्कर्ष यह कि अशठ आत्माकी दशा और इसका सारा बिकाम गल के अधीन हो रहा है । जीवननिमित्तभी खान पान ग्वामोच्छ्वास आदि सभी साधन भौतिकवी अनि होते हैं। हम मानकजीव गोचीमा समपाक्षसोणता बीजमराजया पिया करना है उमबारक जातिका संस्कार आत्मापर पड़ता है और उस संस्थाकी प्रतीक एक भौतिक रवा मस्तिष्कम विच जाती है । दुमरे तीसरे चौथे जो भी विचार या क्रियाएँ होती हैं उन सबके संस्कागेको यह आत्मा धारण करना है और उनकी प्रतीक टेकी सीधी गहरी उधली छोटी बड़ी नाना प्रकारकी रेखाएँ ममिक्रम भरेगा मभावन जैसे भौतिक पदार्थ पर खिचती चली जाती। जो रेखा जितनी गहरी होगी वह उनने ही अधिक दिनोंवर उस विचार या क्रियाकी स्मनि करा देती है । तात्पर्य यह कि आजका ज्ञान शक्ति और सुख आदि सभी पर्यायशक्तियां हैं जो इस दारीर-पर्याय तक ही "हती है। व्यवहारनयसे जीवको मूनिक माननेका अर्थ यही है कि अनादिस यह जीव शरीरसम्बड़ ही मिलना आया है। स्थूल शरीर छोड़नेगर भी सूक्ष्म कम शरीर सदा इसके माथाहता है । इसी सूक्ष्म कर्म गर्गरके नागको ही मुक्ति कहते हैं। जीव पुद्गल दो द्रक्ष्य ही एन : जिनमं क्रिया होती है नथा विभाव या अगद्ध परिणमन होता है । पुद्गलका अशुद्ध परिणमन पुद्गल आर जीव दाना के निमित्त होता है जबकि जीवका अराद्ध परिणमन यदि होगा तो पृद्गलके झी निमित्त । शुद्ध जीवम अशुद्ध परिणमन न त जीवक निमित्त हो सकता है और न पुद्गल के निमित्तसे । अशुद्ध जीवक अशद परिणमनकी धागमें प्रगल या पृगलगम्बद्ध जीव निमिन होता है । जैन सिद्धान्तने जीवका देहप्रमाण माना है। यह अनुभवसिद्ध भी है। शरीर बाहर उस आत्मा अस्तित्व माननेका कोई खास प्रयोजन नहीं रह जाना और न यह नकंगम्य ही है। जीवक जानदर्शन आदि गण उसके शरीरमें ही उपलब्ध होने है शरीरके बाहर नहीं। छरेट ब्रहें शरीक अनमगर अमंध्यारपदी आत्मा संकोच-विकीन करता रहता है। चार्वाकका देहात्मवाद नो देहको ही आत्मा मानना है तथा देहकी परिस्थितिके साथ आत्माका भी बिनाश आदि न्वीकार करता है। जनका दंगपरिमाण-आत्मयाद पूदगद हम आत्मनध्यकी अपनी स्वतंत्र सना स्वीकार करता है। न त देहकी उत्पत्तिने आत्माकी उत्पन्न होती है और न देहके विनाशग आत्मविनाश । जब कर्मगरीरकी शंखलामे यह आत्मा भवन हो जाता है नव अपनी गइ चैतन्य दशाम अनन्तकाल लक स्थिररहता है । प्रन्क द्रव्यम एक जनरूलघु गुण होता है जिसके कारण उसमें प्रतिक्षण परिणमन होते रहने पर भी न तो उसम गुरुत्व ही आता है और न लश्व ही। प्रव्य अपने ग्यम्पम मदा परिवर्तन करत रहने भी अपनी अखण्ड मौलिकताको भी नहीं खाता। __ आजका विज्ञान भी हम बताता है कि जीव जो भी विचार करता है उसकी रेडी सीधी उथली गहरी रेखाएँ मस्तिष्कम भरे हुए मक्खन जैमे श्वेत पदार्थ स्विचती जाती हैं, और उन्द्रीक अनुमार म्मति तथा वागन उदबद्ध होती हैं। जैन कर्म सिद्धान्त भी यही है कि-गगद्वेष प्रथनिके कारण केवल संस्कार ही आत्मापर नहीं पड़ता कितु उम संस्कारको यथासमय उवुद्ध कराने वाले कर्मद्रकाका गंबंध भी होता जाता है। मह कर्मद्रव्य पुद्गल इत्यही है । मन वचन कायकी प्रत्येक क्रिया के अनुसार शक्ल या कृष्ण कर्म पुद्गल आत्मास सम्बन्धको प्राप्त हो जाने हैं। वे विशेष प्रकारके कर्मपदगल बहुत कुछ तो म्थूल शरीरके भीतर ही पड़े रहते हैं जो मनोभावाके अनुसार आत्माके मूल्य कर्मशरग्म शामिल होने जाते हैं, कुछ बाहिरमे भी आते हैं। जम नपे हा लोहे के गोभको पानीमे भरे हए वर्तनमें छोड़िये मो वह गोला जलके भरे हा बरम परमाणुओंको जिस नरह अपने भीतर सोग्य सेना में उमी तरह अपनी गरमी और भापत्ते बाहिरके परमाणऑको भी स्वींचना है । लोहका गोला जब तक गरम रहता है पानीमें उथल पृथक पैदा करता रहता है, कुछ परमाणुओंको लगा कुछ को निकालंगा कुछको भाप बनाएगा, एक अजीबपी परिस्थिति समस्त वातावरणाम उपस्थित कर देना । उनी तरह जब यह आत्मा गगषादिसे उत्तात होता है. नत्र शरीरमें एक अद्भुत हलनचलन उपस्थित करता है ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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