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________________ १६ तत्त्वार्थवृत्ति विमित रखते हों और वर्षा भी करते हों, तो मानस अहिंसक कैसे रह सकते हैं? जबतक उनका समाधान वस्तुस्थिति मूलक न हो जाय तबतक वे कैसे परस्पर समता और अहिंसाका वातावरण बना सकते होंगे ? महावीरने तत्वका साक्षात्कार किया और उनने की सीधी परिभाषा बताई जस्तुका स्वरूपस्थित होना "वस्तुस्वभावी धम्मो" जिस वस्तुका जो स्वरूप है उसका उस पूर्णस्वरूपमें स्थिर होना ही धर्म है। अग्नि यदि अपनी उष्णताको लिए हुए है तो वह धर्मस्थित है। यदि वह शयुके झोंकोंसे स्पन्दित हो रही है कहना होगा कि वह चंचल है अतः अपने निश्चलस्वरूप से च्युत होने के कारण उतने अंश धर्मस्थित नहीं है जल जबतक अपने स्वाभाविक शीतस्पर्शमें है तबतक वहुपस्थित है। यदि वह अग्नि संसर्गसे स्वरूपच्युत हो जाता है तो वह अमरूप हो जाता है और इस परसंयोगजन्य विभागपरिणतिको हटा देनाही जलकी मुक्ति है उसकी धर्मप्राप्ति है । रोगीके यदि अपने आरोग्यस्वरूपका मान न कराया जाय तो वह रोगको विकार क्यों मानेगा और क्यों उसकी निवृतिकेलिए चिकित्सा प्रवृत्ति करेगा ? जब उसे यह ज्ञात हो जाता है कि मेरा तो स्वरूप आरोग्य है । इस अपथ्य आदिले मेरा स्वाभाविक आरोग्य विकृत हो गया है, तभी वह उस बा रोम्य प्राप्तिके लिए चिकित्सा कराता है। भारतकी राष्ट्रीय कांग्रेसने प्रत्येक भारतवासीको जब यह स्वरूपबोध कराया कि तुम्हें भी अपने देशमें स्वतंत्र रहनेका अधिकार है इन परदेशियोंने तुम्हारी स्वतंत्रता विकृत कर दी है तुम्हारा इस प्रकार योग करके पददलित कर रहे हैं। भारत सन्तानो, उठो, अपने स्वातंत्र्य स्वरूपका भान करो" तभी भारतने अंगड़ाई ली और परतंत्रताका बंधन तोड़ स्वातंत्र्य प्राप्त किया। स्वा यस्वरुप भागमा सील तोड़नेकेलिए यह उत्साह और सत्ता नहीं आ सकती थी अतः उस आधारभूत आत्माके मूलस्वरूपका ज्ञान प्रत्येक मुमुखको सर्वप्रथम होना ही चाहिए जिसे वन्यनमुक्त होन है । भगवान् महावीरने सुमुखकेलिए . वर्षात् अन्य दुःखके कारण अर्थात् मिथ्यात्व आदि आसव, मोस अर्थात् दुःखनिवृतिस्वरूपप्राप्ति और मोक्षके कारण संबर अर्थात् नूतन अन्यके कारणोंका अभाव और निर्जग अर्थात् पूर्वसंतिदुःखकारणों क्रमश: विभाग इस तरह बुद्धके चतुराय सत्यकी तरह बन्ध, मोक्ष, आसव नंबर और निजेस इन पांच तत्वों के ज्ञानके साथ ही साथ जिस जीवको यह सब बन्त्र मोक्ष होता है उस जीवका ज्ञान भी आवश्यक बताया। शुद्ध जीवको न्ध नहीं हो सकता । बन्ध दो में होता है। अतः जिस कर्मयह जो बंधता है उस अजीव तत्त्व को भी जानना चाहिए जिससे उसमें रागद्वेष आदिको वारा आगे न बने । अतः मुमुक्षकेलिए जीव अजीव आसन पर निवेश और मोक्ष इन सात तत्वोंका ज्ञान आपदक है। जोआना स्वतंत्र प्र है। कर्मफलक भोक्ता है। लोक पहुँच जाता है। हैन अमूर्त है। चैतन्यशक्तिवाला है। ज्ञानादि पर्यायका स्वयंप्रभु है। अपने शरीर के आकारवाला है। मुक्त होते ही अगगन कर भारतीय दर्शनों प्रत्येक ने कोई न कोई पदार्थ अनादि माने हैं । परम नास्तिक चार्वाक भी पृथ्वी आदि महाभूतों को अनादि मानता हूँ। ऐसे किसी क्षणकी कल्पना नहीं बाती जिसके पहले कोई क्षण न रहा हो । समय से प्रारंभ हुआ इसका निर्देश असंभव है। इसी तरह समय कब तक रहेगा यह उसरावधि बताना भी असंभव है जिन प्रकारका आनादि अनन्त है उसकी पूर्वधि और उत्तरावधि निश्चित नहीं की जा कती उसी तरह आकाश की कोई क्षेत्रकृत मर्यादा नहीं बताई जा सकती। 'सर्वतो धनन्तं तत्' सभी ओरसे वह अनन्त है आका और कालकी तरह हम प्रत्येक स विषयमें यह कह सकते हैं कि उसका न किसी खास क्षण में नूतन उत्पाद हुआ है और न किसी समय उसका समूल विनाश ही होगा । "नासतो विद्यते भावः माभावो विद्यते सतः" अर्थात् किसी असतुका सद्रूपने उत्पाद नहीं होता और न किसी सत्का समूल विनास ही हो सकता है। जितने गिने हुए सत् हैं उनकी संख्या वृद्धि नहीं हो सकती और न उनकी संख्या में से किसी एककी
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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