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स्वार्थवृत्ति
नहीं दिया जा सकता। फिर इन प्रश्नोंके बारेमें कुछ कहना सार्थक नहीं, भिक्षुके लिए उपयोगी नहीं
और न निर्वेद, निरोध, शांति, परमज्ञान वा निर्वाणके लिए आवश्यक है।
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इस तरह बुद्ध जब आत्मा, लोक, और निर्वाणके सम्बन्धमें कुछ भी कहनेको अनुपयोगी बताते हैं तो उसका सीधा अर्थ वही जात होता है कि वे इन तत्त्वांक सम्बन्धमें अपना निश्चित मत नहीं बना सके थे। शिष्योंके तत्वज्ञान के झगड़े में न डालने की बात तो इसलिए समझ नहीं आती कि जब उस समयका प्रत्येक मतप्रचारक इनके विषयमें अपने मतका प्रतिपादन करता था उसका समर्थन करता था, जगह जगह इन्होके विषय में बाद रोपे जाते थे, तब उस हवासे शिष्योंकी बुद्धिको अचलित रखना दुःशक ही नहीं, अशक्य ही था । बल्कि इस अव्याकृत कोटिकी सृष्टि ही उन्हें बौद्धिक हीनताका कारण बनती होगी ।
बुद्धका इन्हें अनेकांशिक कहना भी अर्थपूर्ण हो सकता है। अर्थात् वे एकान्स न मानकर अनेकांश मानते तो थे पर चूंकि निग्गंठनाथपुत मे इस अनेकशिताका प्रतिपादन सियावाद अर्थात् स्पायसे करना कर दिया था, अतः विलक्षणस्थापनके लिए उनने इन्हें अव्याकृत कह दिया हो। अन्यथा अनेकांशिक और अनेकान्तबादमें कोई खास अन्तर नहीं मालूम होता। यद्यपि संजयवेलठित बुद्ध और निम्मंठनायपुल इन तीनोंका गत अनेकांशको लिए हुए है. पर संजय उन अनेक अंशोंके सम्बन्धमें स्पष्ट अनिश्चयवादी है । वह गाफ साफ कहता है कि यदि में जान
हैं यह अव्याकृत है। इस अव्याकृति और संजय को अनिश्चितिमें क्या सूक्ष्म अन्तर है सो तो बुद्धही जानें, पर व्यवहारतः शिष्यों के पल्ले न तो संजय हो कुछ दे सके और न बुद्ध ही। बल्कि संजयके शिष्य अपना यह मत बना भी सके होंगे कि इन आत्मा आदि अतीयि पदार्थका निश्चय नहीं हो सकता, किन्तु बुद्धशिष्योंका इन पदार्थों के विषय बुद्धिभेद आज तक बना हुआ है। आज श्री राहुल सांकृत्यायन बुद्धके भतको अभौतिक अनात्मवाद जैसा उभयप्रतिषेषी नाम देते हैं। इधर आत्मा शब्द नित्यावका डर है उपर भौतिक कहने मे उच्छेदवादका भय है। किंतु यदि निर्वाणदशामें दीपनिर्वाणको तरह चित्तसन्ततिका विरोध हो जाता है तो भौतिकवादसे क्या विशेषता रह जाती है? जावक हर एक जन्ममें आत्माकी भूतोसे उत्पत्ति मानकर उनका चार्वाक भुतविलय का मान लेता है। बुद्धने इस चिन्ततिको पंचस्वरूप मानकर उसका विलय हर एक मरणके समय न मानकर संसार के अन्तमं माना। जिस प्रकार रूप एक मौलिक तत्त्व अनादि अनन्त धारारूप है उस प्रकार चितपास न रही अर्थात् चार्वाकका भौतिकत्व एक जगाका है जब कि बुद्धका भौतिकव एक संसारका इस प्रकार वृद्ध तत्त्वज्ञानकी दिशा संजय यां भौतिकवादी अजितके विभामंही बोलान्दो लित रहे और अपनी इस दशामें भिक्षुओंको न डालनेकी शुभेच्छासे उनने इनका अव्याकृत रूपसे उपदेश दिया। उनने शिष्योंको समझा दिया कि इस बाद-प्रतिवाद निर्माण नहीं मिलेगा, निर्वाणके लिए चार आर्यत्योंका ज्ञान ही आवश्यक बुद्धने कहा कि दुःख, दुःखके कारण दुःखनिरोप और दुःखनिरोधका मार्ग इन चार आर्यसत्यों को जानो । इनके यथार्थ ज्ञानसे दुःखनिरोध होकर मुक्ति हो जायगी । अन्य किसी ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है ।
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निगंठनाथपुत्त-निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र महावीर स्याद्वादी और सप्ततत्त्वप्रतिपादक थे। उनके विषय में यह प्रवाद था कि निम्मंठनाथपूत सर्व सर्वदर्शी है, उन्हें सोते जागते हर समय ज्ञानदर्शन उपस्थित रहता है। ज्ञानपुत्र वर्धमानने उस समयके प्रत्येक तीर्थंकरकी अपेक्षा वस्तुतत्त्वका सर्वागीण साक्षात्कार किया था। वेन संजयकी तरह निश्वयवादी थे और न बुद्धकी तरह अव्याकृतवादी और न योशालक आविकी तरह भूतवादी ही उनने प्रत्येक वस्तुको परिणामनित्य बताया। आजतक उस समय के प्रचलित मतवादियोंके तत्त्वोंका स्पष्ट पता नहीं मिलता। बुद्धने स्वयं कितने तत्त्व या पदार्थ माने थे वह आजभी विवादग्रस्त है पर महावीरके तत्व आजतक निविवाद चले आए है। महावीरने वस्तुतत्वका एक स्पष्ट दर्शन प्रस्तुत किया उनने कहा कि इस जगत् कोई द्रव्य या सत् नया उत्पन्न नहीं होता और जो द्रव्य या सत् विद्यमान है उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन