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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार
संवर के कारण
सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रः ॥ २ ॥
गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र इसके द्वारा संवर होता है । संसार के कारणस्वरूप मन, वचन और कायके व्यापारोंसे आत्माकी रक्षा करनेको अर्थात् मन, वचन और कायके निग्रह करनेको गुप्ति कहते हैं। जीवहिंसारहित यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेको समिति कहते हैं। जाति संसारपाखसि छुट्टतिम स्थानवराज पहुंचा दे वह धर्म है। शरीर आदि के स्वरूपका विचार अनुप्रेक्षा है। क्षुधा, तृषा आदिकी वेदना उत्पन्न होनेपर कर्मोकी निर्जराके लिये उसे शान्तिपूर्वक सहन कर लेना परोषहजय है । कर्मों के आस्रव कारणभूत बाह्य और आभ्यन्तर क्रियाओंके त्याग करनेको चारित्र कहते हैं ।
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सूत्रमें आया हुआ 'स' शब्द यह बतलाता है किं गुप्ति आदिके द्वारा ही संबर होता है । और जल में डूबना, शिरमुण्डन, शिखाधारण, मस्तकछेदन, कुंदन आदिकी पूजा आदिके द्वारा संबर नहीं हो सकता है, क्योंकि जो कर्म राग, द्वेष आदि उपार्जित होते हैं उनकी निवृति विपरीत कारणों से हो सकती है ।
संबर और निर्जराका कारणतपसा निर्जरा च ॥ ३ ॥
तपके द्वारा निर्जरा और संबर दोनों होते हैं । 'ब' शब्द संवरको सूचित करता है ।
यद्यपि दश प्रकारके धर्मो में तपका ग्रहण किया है और उसीसे तप संबर और निर्जराकारण सिद्ध हो जाता, लेकिन यहाँ पृथक रूप से तपका ग्रहण इस बात को बतलाता है कि तप नवीन कर्मों के संघरपूर्वक कर्मक्षयका कारण होता है तथा तप संबरका प्रधान कारण है।
प्रश्न ----आगम में तपको अभ्युदय देनेवाला बतलाता है। वह संबर और निर्जराका साधक कैसे हो सकता है ? कहा भी है- "दानसे भोग प्राप्त होता है, तपसे परम इन्द्र तथा ज्ञानसे जन्म जरा मरणसे रहित मोक्षपद प्राप्त होता है ।
उत्तर--एक हो त इन्द्रादि पदको भी देता है और संबर और निर्जराका कारण भी होता है इसमें कोई विरोध नहीं हैं। एक पदार्थ भी अनेक कार्य करता है जैसे एक ही छत्र छायाको करता है तथा धूप और पानीसे बचाता है ।
इसी प्रकार तप भी अभ्युदय और कर्म क्षयका कारण होता है।
गुप्तिका स्वरूपसम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥ ४ ॥
विषयाभिलापाको छोड़कर और ख्याति, पूजा, लाभ आदिकी आकांक्षा से रहित होकर मन, वचन और कार्यके व्यापारके निग्रह या निरोधका गुप्ति कहते हैं। योगोंक निग्रह होनेपर संक्लेश परिणाम नहीं होते हैं और ऐसा होनेसे कर्मोंका श्रास्त्र भी नहीं होता है । अतः गुप्ति संवरका कारण होती है। गुमिके तीन भेद हैं- कायगुमि, वाग्गुति और मनोगुप्ति ।