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________________ नयम अध्याय समितिका वर्णन - ईर्याभाषैणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ||५|| ममिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति और उत्सर्गसमिति ये पाँच समितियाँ हैं । इनमें प्रत्येकके पहिले सम्यक शब्द जोड़ना चाहिये जैसे सम्यगीयमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज समिति आदि । ईर्यासमिति - जिसने जीवोंके स्थानको अच्छी तरह जान लिया है और जिसका चित्त एकाग्र है ऐसे मुनिके तीर्थयात्रा, धर्मकार्य श्रादिके लिये श्रागे चार हाथ पृथिवी देखकर चलने को ईर्यासमिति कहते हैं । ९।५-६ ४८३ एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी और प्रसंज्ञी पञ्चेन्द्रिय इन सातों के पर्यातक और अपर्याप्तकके भेदसे चौदह जीवस्थान होते हैं। भाषा समिति हित, मिस्र और प्रिय वचन बालना अर्थात् असंदिग्ध, सत्य, कानोंको प्रिय लगनेवाले, कषायक अनुत्पादक सभास्थानके यांग्य, मृदु, धर्म के अविरोधी, देशकाल आदिके योग्य और हास्य आदिसे रहित वचनोंको बोलना भाषासमिति है । एषणासमिति निर्दोष आहार करना अर्थात् विना याचना किये शरीरक दिखाने मात्र से प्राप्त, उद्रम, उत्पादन आदि आहारके दोषों से रहित, घमड़ा आदि अस्पृश्य वस्तुकं संसर्गमे रहित दूसरे के लिये बनाये गये भाजनका योग्य कालमें ग्रहण करना एषणासमिति है । श्रादाननिक्षेप समिति - धर्मक उपकरणोंको मारकी पीछीसे, पीछीके अभाव में कोमल वस्त्र आदि अच्छी तरह झाडू पोंछ कर उठान और रखना आदान निक्षेपसमिति है। मुनि गायकी पूँछ मेचके रोम दिसे नहीं झाड़ सकता है । उत्सर्ग समिति--जीव रहित स्थानमें मल मूत्रका त्याग करना उत्सर्गममिति है । इन पाँच समितियों से प्राणिपीड़ाका परिहार होता है अतः समिति संवरका कारण है । धर्मका वर्णन - उत्तम क्षमा मार्दवार्जव सत्यशौचसंयमतपस्त्यागा किंश्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥ ६ ॥ क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म हैं । इनमें प्रत्येकके पहिले उत्तम शब्द लगाना चाहिये जैसे- उत्तम क्षमा आदि । उत्तमक्षमा शरीरकी स्थिति के कारणभूत आहारको लेनेके लिये दूसरोंके घर जाने बाले मुनिको दुष्ट जनोंके द्वारा असा गाली दिये जाने या काय विनाश आदि उपस्थित होनेपर भी मनमें किसी प्रकारका कांध नहीं करना उत्तम क्षमा है । उत्तम मार्दवविज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और वपु इन आठ पदार्थों के anusको छोड़कर दूसरों के द्वारा तिरस्कार होनेपर अभिमान नहीं करना उत्तम मार्दव है। मन, वचन और कायसे माया ( छल-कपट ) का त्याग कर देना उत्तम आर्जव है । लोभ या गुद्धताका त्याग कर देना उत्तम शौच है। मनोगुप्ति और शौचमें यह भेद है कि मनोगुप्ति में सम्पूर्ण मानसिक व्यापारका निरोध किया जाता है किन्तु जो ऐसा करने में असमर्थ है उसको दूसरों के पदार्थों में लोभके त्यागके लिये शौध बतलाया गया है। भगवती आराधना में शौचका 'लाघव' नाम भी मिलता है । दिगम्बर मुनियों और उनके उपासकोंके लिये सत्य वचन कहना उत्तम सत्य है ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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