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नवम अध्याय
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प्रकममार्तण्ड में एकादश शब्दका यह अर्थ किया गया है- एकेन अधिका न दश इति एकादश अर्थात् एक+अ+दश एक और दश ( ग्यारह ) परीषह जिनेन्द्रके नहीं होते हैं ।
बादरसाम्पराये सर्वे ।। १२ ॥
यादरसाम्य अर्थात् स्थूल कपायवाले छठवें, सातवें, आठवें और नवमें इन चार सम्पूर्ण परीवह होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि इन तीन चारित्रों में शनि होने गये श्री सुविधिसागर जी महाराज कौन पह किस कर्मके उदयसे होता है ?
ज्ञानावरणे प्रज्ञाऽज्ञाने || १३ ||
शामावरण कर्मके से प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परीषद होते हैं ।
प्रश्न - ज्ञानावरण कर्मके उदयसे अज्ञानपरिप होता है यह तो ठीक है किन्तु प्रज्ञापरीपद भी ज्ञानावरण के उदयसे होता है यह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रज्ञापरीषह अर्थात ज्ञानका मद ज्ञानावरण के विनाश होनेपर होता है अतः यह ज्ञानावरण के उदयसे कैसे हो सकता है ?
उत्तर- प्रज्ञा क्षायोपशमिकी है अर्थात् मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम होनेपर और अवधिज्ञानावरण आदिकें सद्भाव होनेपर प्रज्ञाका मह होता है। सम्पूर्ण ज्ञानावरण के तय हो जानेपर ज्ञानका मद नहीं होता है। अतः प्रज्ञा परीषद ज्ञानावरण के उदयसे ही होता है।
दर्शन मोहान्तराययेोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥
दर्शनीय उदयसे अदर्शनपरीषह और अन्तराय कर्म के उदयसे अलाभ परीषह होता है ।
चारित्रमोहे नाग्न्या रतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचना सत्कारपुरस्काराः ।। १५ ।।
चारित्र मोहनीयके उदयसे नाग्म्य अरति, स्त्री, निपया, आक्रोश, याचना और सत्कार पुरस्कार ये सात परीषद होते हैं। ये परीषद बेद आदिके उदयके कारण होते हैं। माइके उदयसे प्राणिपीड़ा होती है और प्राणिपीड़ा के परिहार के लिये निषेधा परीपह होता है अतः यह भी मोहके उदयसे होता है ।
वेदन शेषः ।। १६ ।।
वेदनीय कर्मके उदय क्षुधा तृपा, शीत, उष्ण, दशमशक, चर्या, शय्या, बध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परीषद होते हैं ।
एक साथ एक जीवके होनेवाले परीपट्टोंकी संख्या
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः ॥ १७ ॥
एक साथ एक जीवके एकको आदि लेकर उन्नीस परोह तक हो सकते हैं ।
एक जीवके एक कालमें अधिक से अधिक उन्नीस परीपह हो सकते है। क्योंकि शीत