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तार्थवृत्ति हिन्दी-सार
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और इन दोषों में से एक कालमें एक ही परीषह होगा तथा चर्या, शय्या और निषणा इन तीन परीपहोंमें से एक कालमें एक ही परीषद्द होगा। इस प्रकार बाईस परीषदों में से तीन परीपह घट जाने पर एक साथ उन्नीस परीपद ही हो सकते हैं, अधिक नहीं । प्रश्न- प्रज्ञा और अज्ञान परीषहमें परस्पर में विरोध है अतः ये दोनों परोषह एक साथ कैसे होंगे ?
उत्तर- श्रतज्ञानके होनेपर प्रज्ञापरीषह होता और अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानके अभाव में अज्ञान परिषद होता है अतः ये दोनों परीषद एक साथ हो सकते हैं।
चारित्रका वन
सामायिक छेदोपस्थापना परिहारविासिमसा म्परा यथाख्यातमिति मांगदेशक आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज चारित्रम् ॥ १८ ॥
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथास्यात ये पाँच चरित्र हैं। सूत्र में 'इति' शब्द समाप्तिवाचक है जिसका अर्थ है कि यथाख्यात चारित्रसे कम का पूर्ण क्षय होता है । दश प्रकारके धर्म में जो संयमधर्म बतलाया गया है वह चारित्र हो है लेकिन पुनः यहाँ चारित्रका वर्णन इस बात को बतलाता है कि चारित्र निर्वाणका साक्षात् कारण है ।
सम्पूर्ण पापों के त्याग करनेको सामायिक चारित्र कहते हैं। इसके दो भेद हैं- परिमित काल सामायिक और अपरिमितकाल सामायिक | स्वाध्याय आदि करनेमें परिमितकाल सामायिक होता है और ईर्यापथ आदि में अपरिमितकाल सामायिक होता है ।
प्रमादके वसे अहिंसा आदि व्रतों में दूपण लग जाने पर आगमोक्त विधिसे उस दोषका प्रायश्चित्त करके पुनः व्रतोंका ग्रहण करना छेदोपस्थापना चारित्र है | व्रतोंमें दोष लग जाने पर पक्ष, मास आदिकी वीक्षाका छेद (नाश) करके पुनः घतों में स्थापना करना अथवा सङ्कल्प और विकरूपोंका त्याग करना भी छेदोपस्थापना चारित्र है ।
जिस चारित्र में जीवोंकी हिंसाका त्याग होनेसे विशेष शुद्धि (कर्ममलका नाश हो उसको परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं। जिस मुनिकी आयु बत्तीस बर्षकी हो, जो बहुत काल तक सीर्थकर के चरणों में रह चुका हो, प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्व में कहे गये सम्यकू आचारका जानने वाला हो, प्रसाद रहित हो और तीनों सन्ध्याओं को छोड़कर केवल दो गति (चार मील) गमन करने वाला हो उस मुनिके परिहारविशुद्धि चारित्र होता है। तीर्थकरके पादमूलमें रहनेका काल वर्षथक्त्व ( तीन वर्ष से अधिक और नौ वर्ष से कम ) है । जिस चारित्र में अति सूक्ष्म लोभ कषायका उदय रहता है उसको सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र कहते हैं ।
सम्पूर्ण मोहनीयके उपशम या क्षय होने पर आत्मा के अपने स्वरूपमें स्थिर होनेको याख्यात चारित्र कहते हैं । यथाख्यातका अर्थ है कि आत्मा के स्वरूपको जैसा का तैसा कहना । यथास्यातका दूसरा नाम अथाख्यात भी है जिसका अर्थ है कि इस प्रकार के उत्कृष्ट चारित्रको जीवने पहिले प्राप्त नहीं किया था और मोहके क्षय या उपशम हो जाने पर प्राप्त किया है। सामायिक आदि चारित्रों में उत्तरोत्तर गुणोंकी उत्कृष्टता होनेसे इनका क्रम से वर्णन किया गया है ।
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