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नवम अध्याय
बाह्य तप
अनशनावमौदर्यवृत्ति परिसंख्या नरसपरित्यागविवि शय्यासनकाय
क्लेशा वा तपः ॥ १९ ॥
९।१९-२० ]
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अनशन अषमौदर्य वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विचितशय्यासन और कायक्लेश ये छ वा तप हैं ।
फलकी अपेक्षा न करके संयमकी वृद्धिके लिये, रागके नाशके लिये, कमांके क्षयके लिये, ध्यानप्राप्ति और शास्त्राभ्यास आदिके लिये जो उपवास किया जाता है वह अनशन है । संगम में सावधान रहने के लिये, पित्त, श्लेष्म आदि दोषोंके उपशमनके लिये, ज्ञान, ध्यान आदिकी सिद्धि के लिये क्रम भोजन करना अवमौदर्य है । वृत्तिअर्थात् भोजनकी प्रवृत्ति में परिसंख्यान अर्थान सब प्रकार से मर्यादा करना वृत्तिपरिसंस्थान है । तात्पर्य यह है कि भोजन को जाते समय एक घर एक गली आदिमें भोजन करनेका नियम करना वृत्तिपरिसंख्यान है । इन्द्रियोंके निमहके लिये, निद्राको जीतने के लिये और स्वाध्याय आदिकी सिद्धिके लिये घृत आदि रसोंका त्याग कर देना रसपरित्याग है। ब्रह्मचर्यकी सिद्धि और स्वाध्याय, ध्यान आदिकी प्राप्तिके लिये प्रारणीपीदासे रहित एकान्त और शुन्य घर गुफा आदिमें सोना और बैठना विविक्त शय्यासन है। गर्मी में, घाममें शीत ऋतुमें खुले स्थानमें और वर्षा में वृक्षों के नीचे बैठकर ध्यान आदिके द्वारा शरीरको कष्ट देना कायक्लेश है । कायक्लेश मानले छारीरिक की हड़ती है। रीरिक दुःखोंके सहन करनेकी शक्ति आती है और जैनधर्मकी प्रभावना आदि होती है।
कायक्लेश स्वयं इच्छानुसार किया जाता है और परीषद विना इच्छा होता है यह कायक्लेश और परीपहमें भेद है ।
यह छह प्रकारका तप बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा से होता है और दूसरे लोगोंको प्रत्यक्ष होता है अतः इसको बाह्य तप कहते हैं ।
आभ्यन्तर तप
प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्याय व्युत्सगंध्यानान्युत्तरम् ॥ २० ॥
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान में छह आभ्यन्तर
तप हैं ।
प्रमाद अथवा अज्ञान से लगे हुए दोषोंकी शुद्धि करना प्रायश्चित्त है। उत्कृष्ट चारित्र के धारक मुनिको 'प्राय' और मनको चित कहते हैं । अतः मनकी शुद्धि करनेवाले कमको प्रायश्चित्त कहते हैं । ज्येष्ठ मुनियोंका आदर करना विनय है। बीमार मुनियोंकी शरीरके द्वारा अथवा र दयाकर या अन्य किसी प्रकार से सेवा करना वैयावृत्य है। ज्ञानकी भावना में आलस्य नहीं करना स्वाभ्याय है। घाय और आभ्यन्तर परिब्रहका त्याग कर देना व्युत्सर्ग है। मनकी चलताको रोककर एक अर्थ में मनको लगाना ध्यान है ।
इन तपमें आभ्यन्तर अर्थात् मनका नियमन ( वशीकरण) होनेसे और दूसरे लोगों को प्रत्यक्ष न होने से इनको आभ्यन्तर तप कहते हैं ।