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हिन्दी-सार
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मार्गदर्शक
आचार्य श्री सुजी महाराज
तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा श्रर अज्ञान । छद्मका अर्थ है ज्ञानावरण और दर्शनावरण | ज्ञानावरण और दर्शनावरणका उदय होने पर भी जिसको अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान होनेवाला हो उसको छस् वीतराग (बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि) कहते हैं ।
प्रश्न- छद्मस्थवीतराग गुणस्थान में मोहनीय कर्मका अभाव है इसलिये मोहनीय कर्मक निमित्तसे होनेवाले आठ परीषाद वहाँ नहीं होते हैं यह तो ठीक है लेकिन सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें तो मोहनीयका सद्भाव रहता है अतः यहाँ मोहनीयके निमित्तसे होनेवाले नाग्न्य आदि आठ परोषहाँका सद्भाव और बतलाना चाहिये ।
उत्तर - सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयकी सब प्रकृतियोंका उदय नहीं होता किन्तु संज्वलन लोभकषायका ही उदय रहता है और वह उदय भी सूक्ष्म होता है न कि चादर। अतः यह गुणस्थान भी छद्मस्थवीतराग गुणस्थानके समान ही है । इसलिये इस गुणस्थान में भी चौदह ही परीपद होते हैं ।
प्रश्न- छद्मश्ववीतराग गुणस्थान में मोहनीयके उदयका अभाव है और सूक्ष्मसाम्पराय में मोहनीयके उदयकी मन्दता है इसलिए दोनों गुणस्थानों में क्षुधा आदि चौदह परीषद्दों का प्रभाव ही होगा, वहाँ उनका सहना कैसे संभव है ?
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उत्तर - यद्यपि उक्त दोनों गुणस्थानों में चौदह परीपह नहीं होते हैं किन्तु उन पपके सहन करने की शक्ति होनेके कारण यहाँ चौदह परीषहोंका सद्भाव बतलाया गया है । जैसे सर्वार्थसिद्धिके देव सातवें नरक तक गमन नहीं करते हैं फिर भी वहाँ तक गमन करने की शक्ति होने के कारण उनमें सातवें नरक पर्यन्त गमन बतलाया है ।
एकादश जिने ॥ ११ ॥
सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थानमें ग्यारह परीषद होते हैं। पूर्वोक्त चौदह परीषों में से अनाभ, प्रज्ञा और भज्ञानको छोड़कर शेष ग्यारह परीषद्दोंका सद्भाव वेदनीय कर्मके सद्भावक कारण बतलाया गया है ।
प्रश्न - तेरहवें गुणस्थान में मोहनीयके उदय के अभावमें क्षुधा आदिकी वेदना नहीं हो सकती है फिर ये परीषह कैसे उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर -
- तेरहवें गुणस्थानमें क्षुधा आदिकी वेदनाका अभाव होने पर भी वेदनीय द्रव्य कर्म सद्भाव के कारण यहाँ ग्यारह परीबों का सद्भाव उपचार से समझना चाहिये। जैसे ज्ञानावरण कर्मके नष्ट हो जानेसे जिनेन्द्र भगवान् में चिंताका निरोध करने स्वरूप ध्यान नहीं होता है फिर भी चिताको करने वाले कर्मक. अभाव ( निरोध ) हो जानेसे उपचारसे वहाँ ध्यानका सद्भाव माना गया है। यही बात वहीं परोपछोंके सद्भाव के विषय में है । यदि केवली भगवान क्षुधा आदि वेदनाका सद्भाव माना जाय तो कालाहारका भी प्रसङ्ग उनके होगा। लेकिन ऐसा मामना ठीक नहीं है। क्योंकि अनन्त सुख के उदय होने से जिनेन्द्र भगवान् कथलाहार नहीं होता है । कवयाहार वही करता है जो क्षुधा के क्लेश से पीड़ित होता है । यद्यपि जिनेन्द्र के वेदनीयके उदयका सद्भाव रहता है लेकिन वह मोहनीय के अभाव में अपना कार्य नहीं कर सकता जैसे सेनापति अभाव में सेना कुछ काम नहीं कर सकती।
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अथवा उक्त सूत्र में न शब्द का अध्याहार करना चाहिये। न शब्दका अध्याहार करने से "एकादश जिने न" ऐसा सूत्र होगा जिसका अर्थ होगा कि जिनेन्द्र भगवान के ग्यारह परीषद नहीं होते हैं ।