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________________ ९)१] नवम अध्याय ४८९ १५ अलाभपरीषह - अनेक दिनोंतक आहार न मिलनेपर जो मुनि मनमें किसी प्रकारका खेद नहीं करता है और भिक्षा के छाभसे अलाभको ही तपका हेतु मानता है उस मुनिके अलाभ परीषद्जय होती है । १६ रोगपरीषह – जो मुनि शरीरको अपवित्र, अनित्य और परित्राण रहित समझ कर धर्मकी वृद्धि के लिये भोजनको स्वीकार करना है, लेकिन अपथ्य आदि आहारके लेनेसे शरीर में हजारों रोग उत्पन्न होजाने पर भी व्याकुल नहीं होता है और सर्वोपधि आदि ऋद्धियों के होनेपर भी रोगका प्रतिकार नहीं करता है उस मुनिके रोगपरीवजय होती है । १७ तृण स्पर्श परी वह — जो मुनि चलते समय पैर में तृण, कांटे आदिके चुभ जाने मे उत्पन्न हुई बेदनाको शान्तिपूर्वक सहन कर लेता है उस मुनिके तृणस्पर्शपरी पहजय होती है । १८ मलपरीषह - जिस मुनिने जलकायिक जीवों की रक्षा के लिये मरग्रर्यन्त स्नानका त्याग कर दिया और शरीर में पसीना आनेसे धूलिके जम जानेपर तथा खुजली आदि रोगोंक अपन्न हो जानेपर भी शरीरको जो खुजलाता नहीं इ तथा जो ऐसा विचार नहीं करता है कि मेरा शरीर मलसहित है, और इस भिक्षुका शरीर कितना निर्मल है उस मुनिके मलपरीजय होती है। १९ सत्कारपुरस्कार परीषद्द - प्रशंसा करनेको सरकार और किसी कार्य में किसीको प्रधान बना देने को तर कहते अचार्य श्री मधुसकीहुरस्कार न किये जानेपर जो मुनि ऐसा विचार नहीं करता है कि में चिरतपस्वी हूँ मैंने अनेक चार बादियों को शास्त्रार्थ में हराया है फिर भी मेरी कोई भक्ति नहीं करता है, आसन आदि नहीं देता है. प्रणाम नहीं करता है। मुझसे अच्छे तो मिध्यातपस्वी हैं जिनको मिध्यादृष्टि लोग सर्व मानकर पूजते हैं। जो ऐसा कहा जाता है कि अधिक तपस्या वालोंकी व्यन्तर आदि पूजा करते हैं वह सब झूठ है। ऐसा विचार न करनेवाले मुनिके सत्कार पुरस्कारपरी पहजय होती है। २० प्रज्ञापरीषह - जो मुनि तर्क, व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलङ्कार, अध्यात्मशास्त्र आदि विद्याओंमें निपुण होनेपर भी ज्ञानका मद नहीं करता है तथा जो इस बातका घमण्ड नहीं करता है कि वादी मेरे सामनेसे उसी प्रकार भाग जाते हैं जिस प्रकार सिंह के शब्दको सुनकर हाथी भाग जाते हैं उस मुनिके प्रज्ञापरो जय होती है । २१ अज्ञान परीषद – जो मुनि सकल शास्त्रों में निपुण होनेवर भी दूसरे पुरुषोंके द्वारा किये गये 'यह मूर्ख है' इत्यादि आक्षेपको शान्त मनसे सहन कर लेता है उस मुनिके अज्ञान- परीषहजय होती है । २२ अदर्शनपरीषड्- चिरकाल तक तपश्चर्या करनेपर भी अवविज्ञान या ऋद्धि दिकी प्राप्ति न होनेपर जो मुनि विचार नहीं करता है कि यह दीक्षा निष्फल है, तोंका धारण करना व्यर्थ है इत्यादि, उस मुनिके अदर्शनपर पहजय होती है । इस प्रकार इन बाईस परीषहोंको जो मुनि शान्त चित्तसे सहन करता है उस मुनिक राग द्वेष आदि परिणामों से उत्पन्न होनेवाले आसवका निरोध होकर संवर होता है । किस गुणस्थान में कितने परीपद होते हैं सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्वतुर्दश ॥ १० ॥ सूक्ष्मसाम्पराय अर्थात् दशवें और छमस्थवीतराग अर्थात् बारहवें गुणस्थानमें निम्न चौदह परी होते हैं | क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्चा, शय्या, बध, घलाय, रोग, ६२
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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