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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार पर मिथ्यात्व आत्मामें उदासीनरूपसे अस्थित रहता है और आत्माके श्रद्धान परिणाममें बाश नहीं डाल सकता। लेकिन इसके उदयसे श्रद्धानमं चल आदि दोष उत्पन्न होते हैं। दर्शनमोहनीयकी इस अवस्थाका नाम सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय है। जिसके उदयसे जीय सर्वस द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्गसे पराजमुल होकर तत्त्वोंका श्रद्धान न करे तथा हित और अहितका भी ज्ञान जिसके कारण न हो सके वह मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनोंकी मिली हुई अवस्थाका नाम सम्यग्मिध्यात्व। इस प्रकृतिके उदयसे आत्मामें मिश्ररूप परिणाम होते है। जिस प्रकार कोदो ( एक प्रकारका अन्न ) को धो डालनेसे उसकी कुछ मदशक्ति नष्ट हो जाती है और कुछ मदशक्ति बनी ही रहती है, उसी प्रकार शुभपरिणामोसे मिथ्यात्वकी कुछ फलदानशक्तिके नष्ट होजानेसे वही मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वरूप हो जाता है।
जिसके उदयसे हँसी आवे वह हास्य है। जिसके उदयसे किसी ग्राम आदिमें रहने वाला जीव परदेश आदिमें जानेकी इच्छा नहीं करता है वह रति है। रतिके विपरीत इच्छा होना अरति है। जिसके उदयसे शोक या चिन्ता हो वह शोक है। जिसके उदयसे त्रास या भय उत्पन्न हो वह भय है। जिसके उदयमे जीव अपने दोषोंको छिपाता है और दूसरोंके दोपोंको प्रगट करता है वह जुगुप्सा है। जिसके उदयसे स्त्रीरूप परिणाम हो वह स्त्रीवेद है। जिसके उदयसे पुरुषरूप परिणाम हो बह वेद और जिसके उदयसे नपुंसक रूप भाव हों यह नपुंसकवेद हार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधीसागराव्हारसक
अन्य ग्रन्थोमें वेदोंका लक्षण इस प्रकार बतलाया है-योनि, कोमलता, भयशील होना, मुग्धपना, पुरुषार्थशून्यता, स्तन और पुरुषभोगेच्छा ये सात मात्र स्वीवेदके सूचक हैं। लिम, कठोरता, स्तब्धता, शौण्डीरता, दादी-मूछ, जबर्दस्तपना और खीभोगेच्छा ये सात पुंवेदक सूचक हैं। ऊपर जो वेद और पुरुषवेदक सूचक १४ चिह घताप हैं वे ही मिश्रित रूपमें नपुंसकवेदके परिचायक होते है।
अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यादर्शनको अनन्त कहते हैं। जो क्रोध, मान माया और लोभ मिथ्यात्वके बंधके कारण होते हैं वे अनन्तानुबन्धी हैं। अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे जीत्र सम्यग्दर्शनको प्राप्त नहीं कर सकता। जिसके उदयसे जीव संयम अर्थात् श्रावकके व्रतोको पालन करने में असमर्थ हो वह अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ है। जिसके उदयसे जीव महात्रतोंको धारण न कर सके वह प्रत्यास्यानावरण क्रोध, मान. माया और लोभ है। जो कपाय संयम के साथ भी रहती हैं लेकिन जिसके उदयसे अत्मामें यथाख्यातचारित्र नहीं हो सकता वह संज्वलन क्रोध,मान,माया और लोभ है।
सोलह कषायोंके स्वभावके दृष्टान्त इस प्रकार हूँ। क्रोध चार प्रकारका होता है-१ पत्थरकी रेखाके समान, २ पृथिवीकी रेखाके समान, ३ धुलिरेखाके समान,
और ४ जलरेखाके समान । उक्त क्रोध क्रममे नरक, तिर्यकच, मनुष्य और देवगतिके कारण होते हैं। मान चार प्रकारका होता है-१ पत्थरके समान, २ हड्डीके समान ३ काठके समान और ४ ३तके समान । चार प्रकारका मान भी कम से नरकादि गतियोंका कारण होता है । माया भी चार प्रकारको होती है-१ बाँसकी जड़के समान, २ मेड़ के सींग के समान, ३ गोमूत्र के समान ऑर ५ खुरपाके समान । चार प्रकारकी माया क्रममे नरकादि गतियों कारण होती है । लोभ भी चार प्रकारका होता है- किरमिचके रंगके समान, २ रथके मल अर्थात ऑगतकं समान, ६ शरीरके मलके समान और हल्दोके रंगक समान । चार प्रकारका लोभ भी क्रमसे नरकादि गतियोंका कारण होता है।