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________________ ८1१०-११] आठवौं अध्याय आयुकर्मके भेद--- नारकतैग्योनमानु पदैवानि ॥ १० ॥ नरकायु, तिर्यकचायु, मनुष्यायु और देवायु ये आयुकर्मफे चार भेद हूँ । जिसके उदयसे जीप नरकके दुःखोंको भोगता हुआ दीर्थ काल तक जीवित रहता है वह नरकायु है। इसी प्रकार जिसके उदयसे जीव तियकच मनुष्य देव गतियों में जीवित रहता है उसको तिर्यञ्च मनुष्य देव अायुकर्म समझन्ध चाहिये । नामकर्मके भेद-- गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूागुरुलघूपपातपस्पघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येक शरीरत्रससुभगसुस्वरशुभन्मपर्याप्तिस्थिगदेग्रयशः कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वञ्च ॥ ११ ॥ मार्गदर्शक :- उविनायमिाशीसजिलोपालजनिर्वाजबन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात,परघात,आतप,उद्योत,उच्छ्वास, विहायोगति, प्रत्येकशरीर, साधारण, प्रस, स्थावर, सुभग, दुभंग, सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, स्थूल, पर्याप्ति, अपर्याप्ति, स्थिर, अस्थिर, आदय, अनादेय, यशःकीति, अयशःकीर्ति और तीर्थकर प्रकृति ये नामकर्म के व्यालीस भेद हैं। जिसके उदयसे जीव इसरे भवको प्राप्त करता है उसको गति नामकर्म कहते है। गति के चार भेद हैं-१ नरकगति, २ तियश्चगति, ३ मनुष्यगति और ४ देवगति ! जिसके उदयसे जीवमें नरकभाव अर्थात् नारक शरीर उत्पन्न हो, वह नरक गति है । इसी प्रकार तियेव आदि गतियों का स्वरूप समझ लेना चाहिये। जिसके उदयसे नरकादि गतियों में जीवों में समानता पाई जाच वह जाति नामक्रम है। जातिके पाँच भेद हैं-१ एकेन्द्रियजाति, २ द्वीन्द्रिय जाति, ३ त्रीन्द्रियजाति, ४ चतुशिन्द्रयजाति और ५ पञ्चेन्द्रिय जाति । जिसके उदयसे जीव एकेन्द्रिय कहा जाता है वह ऐकेन्द्रियजाति है। इसी प्रकार अन्य जातियोंका स्वरूप समझ लेना चाहिये। जिसके उदयसे जीवके शरीरकी रचना हो वह शरीर नामकर्म है। इसके पाँच भन्द है. औदारिक, २ वैफियिक, ३ आहारक, ४ तेजस और ५ कामेण शरीर । ... जिसके उदयसे अङ्ग और उपाकी रचना हो उसको अङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं । इसके तीन भेद है--औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, २ बैंक्रियिकशरीरासोपाङ्ग और ३ आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग । तैजस और कार्मण शरीर के अङ्गोपाङ्ग नहीं होते अत; अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके तीन ही भेद हैं। दो हाथ, दो पैर, मस्तक. वक्षस्थल, पीठ और नितम्ब ये आठ अङ्ग हूँ तथा ललाट, कान, नाक, नेत्र आदि उपास हैं। __जिसके उदयसे अझोपाङ्गोंकी यथास्थान और यधाप्रमाण रचना होती हैं उसको निर्माण नामकर्म कहते है। इसके दो भेद हैं स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण । जिसके उदयसे नाक, कान आदिकी रचना निश्चित स्थान में ही होती है वह स्थान निर्माण है। और जिसके उदयसे नाक, कान आदिकी रचना निश्चित संख्याके अनुसार होती है वह प्रमाण निर्माण है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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