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________________ मादिन्कि:-चायना सावादासागरा पाराज ८८-२] आठवाँ अध्याय ४६९ वरण है । मद, खेद, परिश्रम आदिको दूर करनेके लिये सोना निद्रा है। निद्राका बार बार लगातार आना निद्रानिद्रा है । निद्रावाला पुरुष जल्दी जम जावाहासागनिहा महाराज निद्रावाला पुरुष बहुत मुश्किलसे जगता जी शरीरको चलायमान करे वह प्रचला है । प्रचला शोक, श्रम, खद् आदिसे उत्पन्न होती है और नेत्रविकार, शरीर विकार आदिके द्वारा सूचित होती है। प्रचलावाला पुरुष बेठे बैठे भी सोने लगता है । प्रचलाका पुनः पुनः होना प्रचलाप्रचला है। जिसके उदयसे सोनेकी अवस्थामें विशेष बलकी उत्पत्ति हो जावे यह स्यानगृद्धि है। त्यानमृद्धि वाला पुरुष दिन में करने योग्य अनेक रौद्र कार्योंको रात्रि में कर डालता हैं और जागने पर उसको यह भी मालूम नहीं होता कि उसने रात्रिमें क्या किया । गोम्मदसार कर्मकाण्ड में निद्रा आदि के लक्षण निम्न प्रकार बतलाए है स्त्यानगृद्धिके उदयसे सोता हुआ जीव उठ बैठता है, काम करने लगता है और बोलने भी लगता है। निद्रानिद्राके उदयसे जीव आँखोंको खोलनेमें भी असमर्थ हो जाता है। प्रचलाप्रचलाके उदयसे सोते हुये जीवकी लार बहने लगती है और हाथ पर श्रादि चलने लगते हैं। प्रचलाके उदयसे जीय कुछ कुछ सो जाता है, सोता हुआ भी कुछ जागता रहता और बार बार मन्द शयन करता है। और निद्राके उदयसे जीव चलते चलते रुक जाता है, बैठ जाता है। गिर पड़ता है और सो जाता है। वेदनीयके भेद सदसद्वद्ये ॥ ८॥ साता वेदनीय और असाता वेदनीय ये वेदनीयके दो भेद हैं। जिसके उदयसे देव,मनुष्य और तिर्यग्गतिमें शारीरिक और मानसिक सुखोका अनुभव हो उसको साप्ता वेदनीय कहते हैं। और जिसके उदयसे नरकादि गतियों में शारीरिक, मानसिक श्रादि नाना प्रकारके दुःखोंका अनुभव हो उसको असातावेदनीय कहते है। मोहनीयक भेददर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्याखिद्विनवषोडशमेदाः सम्यक्त्वमिध्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्यावेकशः क्राधमानमायालोमाः ॥ ९ ।। मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद हैं-दशनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शन मोहनीयके तीन भेद हैं-१ सम्यक्त्व, २ मिथ्यात्व और ३ सम्यस्मिथ्यात्व । चारित्र मोहनीयके दो भेद हैं-कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय। कषाय वेदनोयके सोलह भेद है-अनन्तानुवन्धी क्रोध,मान,माया और लोभ । अप्रत्याख्यान क्रोध,मान, माया और लोभ । प्रत्याख्यान क्राध, मान, माया और लोभ । संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ । अकपाय वेदनीयके नव भेद है-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्लीवेद, पुंवेद और नपुंसक वेद। ___यद्यपि बन्धकी अपेक्षा दर्शनमोहनीय एक भेदरूप ही है लेकिन सत्ताकी अपेक्षा उसके तीन भेद हो जाते हैं। शुभपरिणामों के द्वारा मिथ्यात्वकी फलदानशक्ति रोक दी जाने
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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