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________________ 1 1 .. i ४६८ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ ५७ भेद हैं। ज्ञानावरण आदिके भेदसे कर्मके आठ भेद हैं। इस प्रकार कर्म के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भी भेद होते हैं । प्रकृतिबन्धके उत्तर भेद- मार्गदर्शक :- आच्चर्यं वतैयशात चतुद्वचत्वारिंशद्वियञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥ ५ ॥ उक्त ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंके क्रमसे पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, व्यालीस दो और पाँच भेद हैं। यद्यपि इस सूत्र में यह नहीं कहा गया है कि प्रकृतिबन्धके ये उत्तर भेद हैं, लेकिन पूर्व में 'आद्य' शब्दके होनेसे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि ये प्रकृतिबन्धके ही उत्तर भेद है । ज्ञानावरण के भेद मतिश्रुतावधि मनःपर्ययकेवल नाम् ॥ ६ ॥ मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण. अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये ज्ञानावरणके पाँच भेद हैं। प्रश्न -- श्रभव्यजीवों में मन:पर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति है या नहीं ? यदि है तो वे जीव अभव्य नहीं कहलायेंगे और यदि शक्ति नहीं है तो उन जीवों में मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणका सद्भाव मानना व्यर्थ ही है । उत्तर - नयकी दृष्टिसे वक्त मतमें कोई दोष नहीं आता । द्रव्यार्थिक नयको दृष्टिसे अभव्यजीवों में मन:पर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति है और पर्यायार्थिकनकी दृष्टिसे दानों शक्तियाँ नहीं है । प्रश्न- यदि अभव्यजीवों में भी मन:पर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति पाई जाती है तो भव्य और अभव्यका विकल्प ही नहीं रहेगा । उत्तर - शक्तिके सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा भव्य और अभव्य भेद नहीं होते हैं किन्तु शक्तिकी व्यक्ति ( प्रकट होना) की अपेक्षा उक्त भेद होते हैं। บ सम्यग्दर्शन आदि के द्वारा जिस जीवकी और जिसकी शक्तिकी व्यक्ति नहीं हो सकती वह है जिससे स्वर्ण निकलता है और एक अन्धपाषाण शक्तिकी व्यक्ति हो सकती है वह भव्य है भव्य है । जैसे एक कनकपाषाण होता होता है जिससे सोना नहीं निकलता ( यद्यपि उसमें शक्ति रहती है ) । यही बात भव्य और अभव्यके विषयमें जाननी चाहिये । दर्शनावरण के भेद चक्षुरचक्षुरधिकेवलानां निद्रानिद्रा निद्राप्रचलाप्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धयश्च ॥ ७ ॥ चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और त्यानगृद्धि ये दर्शनावरण के नौ भेद हैं। जो चक्षु द्वारा होने वाले सामान्य अवलोकनको न होने दे वह चक्षुः दर्शनावरण है। जो चक्षू को छोड़कर अन्य इंद्रियों से होनेवाले सामान्य अवलोकनको न होने दे व अचक्षुःदर्शनावरण है । जो अवधिज्ञान से पहिले होनेवाले सामान्य अवलोकनको न होने दे वह अबधिदर्शनावरण और जो केवलज्ञानके साथ होनेवाले सामान्य दर्शनको रोके वह केवलदर्शना
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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