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________________ ८|३-४ ] आठवां अध्याय ४६७ रस, बीज, पुष्प, फल आदिका मदिरा रूपने परिणमन हो जाता है उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलोंका भी योग और कपाय के कारण कर्मरूपसे परिणमन हो जाता है । आटून 'श्री' सुनिकी का इस यहाको पलाता है कि बन्ध उक्त प्रकारका ही है अन्य गुण-गुणी आदि रूपसे बन्ध नहीं होता है। जिस स्थानमें जीव रहता है केवल उसी स्थान में केवलज्ञानादिक नहीं रहते हैं किन्तु दूसरे स्थानमें भी उनका प्रसार होता है। यह नियम नहीं है कि जितने क्षेत्र में गुणी रहे उतने ही क्षेत्र में गुणको भी रहना चाहिये (?) 1 बन्धके भेद मार्गदर्शक : प्रकृतिस्थित्यनुभाव प्रदेशास्तद्विधयः ॥ ३ ॥ प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ये बन्धके चार भेद हैं । प्रकृति स्वभावको कहते हैं। जैसे नोम की प्रकृति कड़बी और गुडकी प्रकृति मीठी है । कर्मोंका ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि स्वभावरूप होना प्रकृतिबन्ध हैं। अर्थका ज्ञान नहीं होने देना ज्ञानावरणकी प्रकृति है । अर्थका दर्शन नहीं होने देना दर्शनावरणकी प्रकृति है। सुख और दुःखका अनुभव करना वेदनीय की प्रकृति है । तत्त्वोंका अश्रद्वान दर्शनमोहनीको प्रकृति है । असंयम चारित्र मोहनीयकी प्रकृति है । भवको धारण कराना आयु कर्मकी प्रकृति है । गति, जाति आदि नामोंको देना नामकर्मकी प्रकृति है । उच्च और नीच कुल में उत्पन्न करना गोत्रकर्मकी प्रकृति है । दान लाभ आदिमें विघ्न डालना अन्तराय की प्रकृति है । आठों मोंका अपने अपने स्वभावसे च्युत नहीं होना स्थितिबन्ध है। जैसे अजाक्षीर गोक्षीर आदि अपने माधुर्य स्वभावसे च्युत नहीं होते हैं उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म भी अर्थका अपरिज्ञान आदि स्वभावसे अपने अपने काल पर्यन्त च्युत नहीं होते हैं। ज्ञानावरणादि प्रकृतियों की तीव्र, मन्द और मध्यमरूप से फल देनेकी शक्ति (रस विशेष) को अनुभाग कहते हैं । अर्थात् कर्मपुद्गलोकी अपनी अपनी फलदान शक्तिको अनुभाग कहते हैं । कर्म रूपसे परिणत पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्याको प्रदेश कहते हैं। प्रकृति और प्रदेश बन्ध योग के द्वारा ओर स्थिति तथा अनुभागबन्ध कषायके द्वारा होते हैं । कहा भी है- 'योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं तथा कषायसे स्थिति और अनुभाग बन्ध । अपरिणत --उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय आदि गुणस्थानों में कषायों का सद्भाव न रहने से बंध नहीं होता अर्थात् इनमें स्थिति और अनुभाग बंध नहीं होते । प्रकृतिबन्ध के भेद आयो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुन मिगोत्रान्तरायाः ॥ ४ ॥ प्रकृतिवन्ध के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय. आयु नाम, गोत्र और अन्तराय ये घाट भेद हैं। I आयु शब्द कहीं उकारान्त भी देखा जाता है। जैसे "वितरतु दीर्घमायु कुरुताद्गुरुतामवतादहर्निशम् ” इस वाक्य में जिस प्रकार एक बार किया हुआ भोजन रस, रुधिर, मांस आदि अनेक रूपसे परिणत हो जाता है उसी प्रकार एक साथ बन्धको प्राप्त हुए कर्म परमाणु भी ज्ञानावरणादि अनेक भेद रूप हो जाते हैं। सामान्यसे कम एक ही हैं। पुण्य और पाप की अपेक्षा कर्मके दो भेद हैं। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेद कर्मके चार
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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