SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६६ तत्त्वा साचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज विरतियुक्त प्रति तथा प्रमाद, कपाय और योग बन्धके हेतु हैं । प्रमत्त संयत के प्रमाद, aara और योग ये तीन बन्धके हेतु हैं । श्रप्रमत्त, अपूर्वकरण, बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानों में कषाय और योग ये दो ही बन्धके कारण हैं । उपशान्तकपाय, श्रीकपाय और सयोगकेवली गुणस्थानों में केवल योग ही बन्धका हेतु है । अयोगकेवली गुणस्थान में बन्ध नहीं होता है । बन्धका स्वरूप सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ॥ २ ॥ कषायसहित होने के कारण जीव जो कर्मके योग्य ( कार्माणवर्गणा रूप ) पुदल परमाणुओं को ग्रहण करता है बहु बन्ध है । पायका पहिले सूत्र में हो चुका है। इस सूत्र में पुनः कषायका ग्रहण यह सूचित करता हैं कि तीव्र, मन्द और मध्यम कपायके भेदसे स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध भी तीन, मन्द और मध्यमरूप होता है । प्रश्न - बन्ध जीवके हो होता है अतः सूत्रमें जीव शब्दका ग्रहण व्यर्थ है । अथवा जीव अमूर्ती है, हाथ पैर रहित है, वह कर्मोंको कैसे ग्रहण करेगा ? उत्तर - जो जीता हो या प्राण सहित हो वह जीव है इस अर्थको बतलाने के लिये जीव शब्दका प्रण किया गया है। तात्पर्य यह है कि आयुप्राणसहित जीव ही कमको ग्रहण करता है । आयुसबन्धके बिना जीव अनाहारक हो जाता है अतः विग्रहगति में एक, दो या तीन समय तक जीव कर्म ( नोकर्म ? ) का महण नहीं करता है । प्रश्न - - 'कर्मयोग्यान्' इस प्रकारका लघुनिर्देश ही करना चाहिये था 'कर्मणो योग्यान्' इस प्रकार पृथक् विभक्तिनिर्देश क्यों किया ? उत्तर - 'कर्मयोग्यान इस प्रकार पृथक् विभक्तिनिर्देश दो वाक्योंको सूचित करता १ एक वाक्य है -- कर्मणां जीवः सकपायो भवति और दुसरा वाक्य है कर्मणो योग्यान् । प्रथम वाक्यका अर्थ है कि जीव कर्मके कारण ही सकषाय होता है। कर्म रहित जीव के पायका सम्बन्ध नहीं हो सकता। इससे जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध सिद्ध होता है । तथा इस शंकाका भी निराकरण हो जाता है कि अमूर्तक जीव मूर्त कर्मोंको कैसे ग्रहण करता है। यदि जीव और कर्मका सम्बन्ध सादि हो तो सम्बन्ध के पहिले जीवको अत्यन्त निर्मल होने के कारण सिद्धोंकी तरह बन्ध नहीं हो सकेगा । अतः कर्म सहित जीव ही कमबन्ध करता है, कर्मरहित नहीं। दूसरे वाक्यका अर्थ है कि जीव कर्मके योग्य ( कार्मार्गणारूप ) पुलोंकी हो ग्रहण करता है अन्य पुलोंको नहीं । पहिले वाक्य में 'कर्मणो' पञ्चमी विभक्ति है और दूसरे वाक्यमें पष्ठी विभक्ति । यहाँ अर्थ बशसे विभक्ति में भेद हो जाता है । सूत्र में पुद्गल शब्दका ग्रहण यह बतलाता है कि कर्मकी पुद्गल के साथ और पुद्गल की कर्मके साथ तन्मयता है। कर्म आत्मा का गुण नहीं है क्योंकि आत्माका गुण संसारका कारण नहीं हो सकता। 'आदते' यह क्रिया बचन हेतुहेतुमद्भावको बतलाता है। मिध्यादर्शन आदि बन्धके हेतु हैं और बम्बसहित आत्मा हेतुमान् है । मिध्यादर्शन आदि के द्वारा सूक्ष्म अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओं का आत्माके प्रदेशों साथ जल और दूधकी तरह मिल जाना बन्ध है । केवल संयोग या सम्बन्धका नाम बन्ध नहीं है। जैसे एक बर्तन में रखे हुए नाना प्रकार के
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy