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________________ आठवाँ अध्याय बन्धके कारण-- मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा वन्धहेतवः ॥ १ ॥ मिध्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धके कारण हैं। तत्त्वार्थों के अनदान या विपरीत श्रद्धानको मिथ्यादर्शन कहते हैं। इसके दो भेद है-नैसर्गिक ( अगृहीत ) मिथ्यात्व और परोपदेशपूर्वक (गृहीत ) मिथ्यात्व । परोपदेशके बिना मिथ्यात्य कर्म के उदद्यसे जो सत्त्वोंका अश्रवान होता है वह नैसर्गिक मिथ्यात्व है। जैसे भरतके पुत्र मरीचिका मिथ्यात्व नैसर्गिक था। गृहीत मिथ्यात्वके चार भेद हैं---क्रियावादी, 'अक्रियावादी, अज्ञानिक औमासिक अवधाकामा ममीवासविनयजी महाराज संशय और अज्ञान ये पाँच भेद भी होते हैं। यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं, इस प्रकार अनेकधर्मात्मक वस्तुके किसी एक धर्मको ही मानना, सारा संसार ब्रह्मस्वरूप ही है, अथवा सब पदार्थ नित्य ही हैं इस प्रकार के ऐकान्तिक अभिप्राय या हठको एकान्त मिथ्यादर्शन कहते हैं। समन्थको निर्मन्थ कहना, केषलीको कवलाहारी कहना और स्त्रीको मुक्ति मानना इत्यादि विपरीत कल्पनाको विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं। "इसमें सन्देह नहीं है कि जो समभावपूर्वक आत्माका ध्यान करता है यह अवश्य ही मोक्षको प्राप्त करता है चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बुद्ध हो या अन्य कोई।" इस प्रकारका श्रद्धान विपरीत मिथ्यात्व ही है । सम्यग्दर्शन,ज्ञान और चारित्र मोक्षके मार्ग है या नहीं इस प्रकार जिनेन्द्र के वचनों में सन्देह करना संशय मिथ्यात्व है। सब देवताओं और सब मतोंको समान रूपसे आदरकी दृष्टिसे देखना पैनयिक मिध्यात्य है । हित और अहितके विचार किये बिना श्रद्धान करनेको अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं। क्रियावादियोंके १८५, अक्रियावादियोंके ८४, अज्ञानियोंके ६७ और वैनयिकोंके ३२ भेद हैं। इस प्रकार सश मिथ्यादृष्टियोंके ३६३ भेद है। पाँच प्रकारके स्थावर और प्रस इस प्रकार छह कायके जीवोंकी हिंसाका त्याग न करना और पाँच इन्द्रिय और मनको यशमें नहीं रखना अविरति है। इस प्रकार अविरतिके बारह भेद हैं। _ पाँच समितियोंमें, तीन गुप्तियों में, विनयशुद्धि, कायशुद्धि, बचनशुद्धि, मनः शुद्धि, ईर्यापथथुखि, व्युत्सर्गशुद्धि, भैदयशुद्धि, शयनशुद्धि और आसनशुद्धि इन आठ शुद्धियों में, तथा दशलक्षणधर्ममें आदर पूछक प्रवृत्ति नहीं करना प्रमाद है। प्रमादके पन्द्रह भेद हैंपाँच इन्द्रिय, चार विकथा, चार कवाय, निछ। और प्रणय । सोलह कषाय और नव नोकषाय इस प्रकार कषायके पच्चीस भेद हैं। चार मनोयोग, चार बचनयोग और सात काययोगके भेदसे योग पन्द्रह प्रकारका है। आहारक और आहारकमिश्र काययोगका सद्भाव छठवें गुणस्थानमें ही रहता है। मिथ्यादर्शन आदिका धर्णन पहिलेके अध्यायों में हो चुका है । मिथ्या दृष्टिके पाँचों ही बन्धके हेतु होते हैं । सासादन सम्यदृष्टि,सम्यग्मिध्याष्टि, और असंयत सम्यग्दृष्टिमें मिथ्यात्वके बिना चार बन्धक हेतु होते हैं । संयता संयतकै
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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