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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी सार
[७३९ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज,
प्रश्न-आहार डि देनेसे सम्यग्दर्शन आदिकी वृद्धि कैसे होती है !
सरस आहार देनेसे मुनिके शरीरमें शक्ति. आरोग्यता आदि होती है । और इससे मुनि ज्ञानाभ्यास उपचास तीर्थयात्रा धर्मोपदेश आदिमें सुखपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं। इसी प्रकार पुस्तक पीछी आदिके देनेसे भी परोपकार होता है। विज्ञानी योग्य दाता योग्य पात्रके लिये योग्य वत्तुका दान दे। कहा भी है कि
"धर्म,स्वामि सेवा और पुत्रोत्पत्तिमें स्वयं व्यापार करना चाहिए दूसरोके द्वारा नहीं।"
जो अन्न विवर्ण विरस और घुना हुआ हो, स्वरूपचलित हो, झिरा हुआ हो. रोगोत्पादक हो, जूंठा हो, नीच जनोंके लायक हो, अन्यके उद्देश्यसे बनाया गया हो. निन्य हो, दुर्जनोंके द्वारा छुआ गया हो, दवभश्य आदिके लिए संकल्पित हो, दूसरे गांवस लाया गया हो, मन्त्रसे लाया गया हो, किसीक उपहार के लिए रखा हो, बाजार बनी हुई मिठाई आदिके रूप में हो,'प्रकृतिविरुद्ध हो, ऋतुविरुद्ध हो, दही घी इंध आदिर बना हुआ होनेपर बासा हो गया हो, जिसके गन्ध रसादि चलित हो, और भी इसी प्रकारका भ्रष्ट अन्न पात्रोंको नहीं देना चाहिए ।
दानके फल में विशेषताविधिद्रव्यदातपात्रविशेषाद्विशेषः ।। ३९ ।। विधिविशेष, द्रव्यविशेष, दातृधिशेप और पात्रविदापसे दान के फलम विशेषता होती है।
सुपात्रके लिये खड़े होकर पगगाहना, उच्च आसन देना, चरण धोना, पूजन करना, नमस्कार करना, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और भोजनशुद्धि ये नव विधि हैं। विधिमें आदर और अनादर करना विधिविज्ञप है। आदरसे पुण्य और अनादरस पाप होता है। मद्य, मास और मधुरहित शुद्ध चावल गेहूँ आदि द्रव्य कहलाते हैं। पारके तप, स्वाध्याय आदिकी वृद्धि में हेतुभूत द्रव्य पुण्यका कारण होता है। तथा जो द्रव्य तप आदिकी वृद्धि में कारण नहीं होता वह विशिष्ट पुण्यका भी कारण नहीं होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये दाता होते हैं। पात्र असूया न होना, दानमें विषाद् न होना तथा दृष्टफलकी अपेक्षा नहीं करना आदि दाताकी विशेषता है। श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, विज्ञान, अलोभता, क्षमा और शक्ति ये दाता सात गुण हैं। पात्र तीन प्रकारके होते है-उत्तम पात्र, मध्यम पात्र और जघन्य पात्र । महाव्रतके धारी मुनि उत्तम पात्र है। श्रावक मध्यम पात्र है । सम्यग्दर्शन सहित लेकिन ऋतरहित जन जघन्य पात्र हैं। सम्यग्दर्शन आदिकी शुद्धि और अशुद्धि पात्रकी विशेषता है।
योग्य पात्रके लिये विधिपूर्वक दिया हुआ दान बटबीजकी तरह प्राणियोंको अनेक जन्मों में फल ( सुख ) को देता है।
पात्र गत थोड़ा भी दान भूमिमं पड़े हुए बटबीजकी तरह विशाल रूपमें फलता है । जिसके आश्रयसे अनेकोंका उपकार होता है।
सप्तम अध्याय समाप्त