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________________ १।२४-२५ ] प्रथम अध्याय अपेक्षा जघन्य गव्यूति पृथक्त्व और उत्कृष्ट योजन पृथक्त्वके भीतर जानता हूँ । विपुलमति मन:पर्यय कालकी अपेक्षा जघन्य सात या आठ भवोको और उत्कृष्ट असंख्यात भवको जानता है। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य योजनपृथक्त्व और उत्कृष्ट मानुषोत्तर पर्वतके भीतर जानता है. बाहर नहीं । ऋजुमति और विपुलमतिमें अन्तर -- विशुद्ध प्रतिपाताम्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥ विशुद्धि और अतिपातकी अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमतिमं विशेषता है। मन:पर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मा के परिणामोंकी निर्मलताका नाम विशुद्धि है संयमसेदिर्सित नहीं क्षेत्रप्रतिपावसात राजगुणस्थानवर्तक चारित्रमोहका उदय आनेके कारण प्रतिशत होता है। श्रीणकषायका नहीं । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा ऋजुमतिसे विपुलमति विशुद्धतर है । सर्वाषधि कार्मणद्रव्य के अनन्तयें भागको जानता है । उस अनन्तवें भाग के भी अनन्त वें भागको ऋजुमति जानता है। और ऋजुमतिके विषयके अनन्तवें भागको त्रिपुलमति जनता है। इस प्रकार सूक्ष्म से सूक्ष्म द्रव्यको जाननेके कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाषकी अपेक्षा विमुलमति ऋजुमतिसे विशुद्धतर है। अतिपातकी अपेक्षा भी विपुलविशेषता है । विपुलमति मन:पर्ययज्ञानियोंके चारित्रको उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है अतः उसका प्रनिपात ( पतन ) नहीं होता है । ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानियोंके चारित्रकी कषायके उदयसे हानि होनेसे उसका प्रतिपात हो जाता है । अवधि और मन:पर्ययज्ञान में विशेषता- विशुद्धिक्षेत्रस्वामित्रिषयेभ्योऽवधिमनः पर्यययोः ॥ २५ ॥ अवधि और मन:पर्ययज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयकी अपेक्षा विशेषता है । सूक्ष्म वस्तुको जानने के कारण अवधिज्ञान से मन:पर्ययज्ञान विशुद्ध है । मनःपर्ययज्ञानसे अवधिज्ञानका क्षेत्र अधिक है। अवधिज्ञान तीन लोकमें होनेवाली पुद्गलकी पर्यायोंको और मुगलसे सम्बन्धित जीवकी पर्यायोंको जानता है । मन:पर्ययज्ञान मानुषोत्तर पर्वतके भीतर ही जानता है। मन:पर्ययज्ञान मनुष्यों में उत्पन्न होता है, देव, नारकी और तिर्यनोंके नहीं । मनुष्यों में भी गर्भजोंके ही होता है संमूर्च्छनके नहीं । गर्भजों में मी कर्मभूमिजोंके ही होता है भोगभूमिजोंके नहीं । कर्मभूमिजों में भी पर्यातकोंके ही होता है अपर्याप्तकोंके नहीं । पर्याप्तकों में भी सम्यग्दृष्टियों के ही होता है मिथ्यादृष्टि आदि नहीं। सम्यग्दृष्टियोंमें भी संयतों के होता है असंयतोंके नहीं । संयतों में भी छठवें गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थान तक होता है तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में नहीं होता है। उनमें भी प्रवर्धमान चारित्रवालोंके ही होता है हीयमानचारित्र चालक नहीं | प्रबर्धमानचारित्रवालों में भी सात प्रकार की ऋद्धियों में से किसी एक ऋद्धि के धारोके ही होता है अनृ द्विधारी के नहीं । ऋद्विधारियों में भी किसीके ही होता है सबके नहीं । अतः मन:पर्ययज्ञानके स्वामी विशिष्टसंयमवाले ही होते हैं । अवधिज्ञान चारों ही गतियों में होता है ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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