________________
आयवतत्त्वनिरूपण
२९
पदि दर्शनके सम्बन्धमें है तो दर्शनावरणके आस्रवके कारण हो जाते है । इसी तरह आचायं और उपाध्याय
रखना, अकाल अध्ययन, असंचपूर्वक पढ़ना, पढ़नेम आलम करना, व्यास्थान को अनादर पूर्वक सुनना. तीर्थोपरोध, बहुश्रुतके समक्ष भी ज्ञानका गर्व करना, मिथ्या उपदेश देकर दूसरे मिथ्या ज्ञानमं कारण बनना. बहुश्रुतका अपमान करता, लोभादिवश तत्त्वज्ञानके पक्षका त्याग करके अतस्वजानीय पक्षको रहण काना. असम्बद्ध प्रसाप, सूत्र विरुद्ध व्याख्यान, कपटसे ज्ञानार्जन करना, मास्त्र विषय आदि जितनं शान, ज्ञानी और जानव साधनोंमें विघ्न और द्वेषोत्पादक भाव और क्रियाएँ होती हैं उन सबसे आत्मापर ऐसा संस्कार पड़ता है जो शानावरण कर्मक आवका हेतु होता है।
देव गा आदिक दर्शन में मात्सर्य करना, दर्शनमें अन्तराम करना, मिमीकी आंख फोड देना. इन्दियोफा अभिमान करना, नेत्रोंका अहंकार करना, दीर्घ निद्रा, अतिनिद्रा, आलस्थ, सम्यग्दष्टिमें दोषोभावन, कुशास्त्र प्रशंसा, गुरुजसा आदि दर्शनके दिघामक भाव और क्रियाएँ दर्शनावरण का आखत कराती हैं।
असावावेदनीय-अपने में परमें और दोनोंमें दुःख पाक आदि उत्पन्न करनये आसानावेदनीयका आलब होता है। स्व पर या उभयमें दःख उत्पन्न करना, इवियोगमें अत्यधिक विकलता और शोब करता. निन्दा मानभंग या कर्कशवचन आदिसे भीतरही भीतर जालना, परिपके कारण अचगानपूर्वक बहु विलाप फरना, छाती कूट कर या सिर फोड़कर आक्रन्दन करना. दुःखसे आ फोड़ लेना या आत्महत्या कर लेना. इम
प्रकार रोना चिलाना कि सुननेवाले भी रो पड़ें, योक आदिसे लंघन करना, अशुभ प्रयोग, पनिन्दा, गिशुनना. मार्गदर्शकअदयाअचाखाकासुईवविद्यमावड़वी सरगली आदिमे तर्जन करना,बचनोंसे भमना करना, रोधन,
बंधन, दमन, आत्म प्रशंसा, क्लेशोत्पादन. अपरिग्रह, आकुलता, मन वचन कायकी कुटिलता, पाप कायोग आजीविका करना, अनर्थदण्ड, विषमिश्रण, बाण जाल पिजरा आदिका बनाना इत्यादि बिलने कार्य स्वयं में परमें पा दोनोंमें दुःख आदिके. उत्पादक है वे सब असाता देदनीय कमके आमवमें कारण होते हैं।
सातावेदनीय-प्राणिमात्र पर दयाका भात्र, मुनि और श्रावतके वन धारण करनेवाले प्रतियोंपर अनुकम्पाके भाव, परोपकारार्थ दान देना, प्राणिपक्षा, इन्द्रियजय. क्षान्ति अर्थात् क्रोध मान मायाका त्याग. शौच अर्थात लोभका त्याग, रागपूर्वक संयम धारण करना, अामनिर्जरा अर्थात शान्ति से कर्मोक फलका भोगना, कायमलेश रूप कठिन बाहातप, अर्हत्पूजा आदि शुभ राग, मुनि आदिकी सेवा आदि स्व पर नथा उभयमें निराकुलता सुखके उत्पादक विचार और क्रियाएँ सातावदनीयकं आसयका कारण होती है।
दर्शनमोहनीय-जीवन्मुक्त केवली शास्त्र मंध धर्म और देवोंकी निन्दा करना इनमें अवर्णवाद अर्थात् अविद्यमान दोषोंका कथन करना दर्शन मोहनीय अर्थान् मिथ्यात्व कर्मका आत्रव करता है । वेवली रोगी होते हैं, कवलाहारी होते हैं, नग्न रहते हैं परं वस्त्रयुक्त दिखाई देते हैं. इत्यादि केवलीका अवर्गवाद है। शास्त्रमें मांसाहार आदिका समर्थन करना श्रुतका अवर्णवाद है । शास्त्र मुनि आदि मलिन हैं, स्नान नहीं करते, कलिकाल साधु हैं इत्यादि संघका अवर्णवाद है। धर्म करना व्यर्थ है, अहिंसा कायन्ता है, आदि धर्मका अवर्णबाव है। देव मद्यपायी और मांसभक्षी होते हैं आदि देशेवा अवर्णनाद है। सारांश यह कि देव गुरु धर्म संघ और श्रुतके सम्बन्धम अन्यथा विचार और मिथ्या धारणाएं मिथ्यात्वको पोषण करती है और इसमें दर्शनमोह का आरत्रव होता है जिससे यथार्थ तत्त्वरुचि नहीं हो पाती।
चारित्र मोहनीय-स्वयं और परमं कषाय उत्पन्न करना, प्रतशीलवान् एषोंम दूषण लगाना, धर्मका नाश करना, धर्ममें अन्तराम करना, देश संयमियोंरों व्रत और शीलका त्याग कराना, मात्सर्या दिसे रहित सज्जन पुरुषों में मतिविभ्रम उपन्न करना, आर्त और रौद्र परिणाम आदि कषाय की तीव्रताके साधन कषाय चारित्र मोहनीयकै आलवके कारण है। समीचीन धार्मिकोंकी हंसी काना, दीनजनोंको देखकर हंसना, काम विकारक भावों पूर्वक हंसना, बहु प्रलाप तथा निरन्तर माड़ों जैसी हंसोड़ प्रवृत्ति से हास्य नो कषायका कासव होता है। नाना प्रकार क्रीड़ा, विचित्र क्रीड़ा, देशादिके प्रति अनौत्सुक्य, तशील आदिम अरुचि आदि पति नोकषायके आनयक हेतु है। दूसरोंमें अरति उत्पन्न करना, रतिका विनाश करमा, पापशीलजनों